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भगवान श्री अरिष्टनेमि/१४३
हैं। उनकी इस हार्दिक अभिलाषा पर उस समय आघात लगा जब तोरण से पहले ही उनके भावी जीवन साथी वापस मुड़ गए। राजीमती तत्काल मूच्छित हो गई। शीतलोपचार से वह पुनः सचेत हुई और विलाप करने लगी-कहां मैं हतभागिनी कहां वे नर श्रेष्ठ! मुझे तो स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी कि कुमार नेमि जैसे नरशिरोमणि मेरे जीवन संगी बनेंगे। महापुरुष अपने दिये वचन को निभाते हैं। मेरे उपयुक्त न होने पर आप स्वीकृति ही नहीं देते। आपके द्वारा स्वीकृत होते ही मैं आपकी पत्नी बन चुकी। आपने मेरे भीतर आशा का दीप जलाकर अचानक बुझा दिया। प्राणनाथ ! इसमें आपकी क्या गलती है। लगता है, इसमें मेरे ही कर्मों का कोई दोष है। थोड़ी देर बाद वह कुछ आश्वस्त बनी और संकल्प किया- 'मैं अब नेमिकुमार की पत्नी बन चुकी हूं। उन्होंने जिस पथ का अनुसरण किया। मैं भी उसी पथ का अनुगमन करूंगी।'
कुमार अरिष्टनेमि के छोटे भाई रथनेमि राजीमती के रूप-लावण्य पर मुग्ध हो गये। वे भाभी से मिलने उग्रसेन के प्रासाद में आ जाते और कुछ न कुछ भेट देते। राजीमती अपने देवर की भेंट को सहज भाव से स्वीकार कर लेती। जब एक दिन मौका पाकर रथनेमि ने राजीमति को विवाह के लिये निवेदन किया तब उनको पता चला कि वह हमेशा इस तरह क्यों आता है। राजीमती ने उसे समझाने का प्रयत्न किया फिर भी उसने अपना प्रयास नहीं छोड़ा।
राजीमती ने देवर को समझाने के लिये एक युक्ति सोची और उसने भर पेट खीर खा ली। रथनेमि के महल में आते ही राजीमति ने कहा- एक थाल लाओ। उन्होंने मदन फल खाकर खीर का वमन कर दिया और कहा-'देवर जी! इसे खाओ।' रथनेमि ने मुंह बिचकाते हुए कहा-क्या मेरे साथ मजाक कर रही हो? क्या आप यह नहीं जानती कि वमन किया हुआ खाया क्या सूंघा भी नहीं जाता? क्या मुझे कुत्ता समझ रखा है?'
राजीमती ने बात को मोड़ देते हुए कहा-'देवरजी! जब तुम जानते हो कि वमन किया हुआ पदार्थ अपेय व अखाद्य है तो फिर मेरी आकांक्षा क्यों मन में रखते हो। मैं आपके नर श्रेष्ठ भाई द्वारा वमित-छोड़ी हुई हूं। खबरदार! कभी भी इस भावना से महल में न आना' यह सुनकर रथनेमि बहुत लज्जित हुए। बिना एक शब्द बोले अपने महल में आ गये। कुछ समय बाद विरक्त बन मुनि बन गये। कुमार अरिष्टनेमि के प्रव्रज्या की बात सुनने पर राजीमती सैंकड़ों युवतियों के साथ साध्वी बन गई। दीक्षित होते समय वासुदेव श्रीकृष्ण ने आशीर्वाद दिया। - अरिष्टनेमि ने केवल ज्ञान प्राप्त होने के बाद तीर्थ की स्थापना की। साध्वी राजीमती अनेक साध्वियों के साथ भगवान् का दर्शन करने के लिए रेवतगिरि की ओर रवाना हुई। मार्ग में तेज अंधड़ आया और वारिस शुरू हो गई। इस कारण