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भगवान् श्री अरिष्टनेमि/१४७
समिधा (लकड़ी) आदि लेकर आ रहा था। सहसा उसकी दृष्टि मुनि पर पड़ी। देखते ही वह आगबबूला हो उठा। मन ही मन कहने लगा-'अरे मूढ़ ! साधु ही बनना था, तो फिर मेरी लड़की को कुंआरे अन्तःपुर में क्यों रखा ? उस बेचारी का जीवन ही बर्बाद कर दिया। ऐसे ही तो राजीमती को अन्त में साध्वी बनना पड़ा था। तू तो भिक्षु बन गया, किन्तु वह क्या करेगी?' इस चिन्तन में उसका क्रोध और अधिक हो गया। उसने मुनि के मस्तक पर गीली मिट्टी से पाल बांध कर धधकते अंगारे उनके नवमुण्डित मस्तक पर रख दिये तथा स्वयं गलियों में छुपता हुआ घर की ओर जाने लगा।
इधर मुनि का मस्तक जलने लगा। किन्तु आत्मा और शरीर की भिन्नता के चिन्तन से मुनि नहीं हटे। कुछ ही क्षणों में इस परमोत्कर्ष चिन्तन से वे सर्वज्ञ बन गये और निर्वाण को प्राप्त कर लिया।
संध्या समय वासुदेव श्रीकृष्ण प्रभु के दर्शनार्थ आए। मुनि गजसुकुमाल को वहां न देख प्रभु से पूछा, तो प्रभु ने फरमाया-'गजसुकुमाल मुक्त बन चुके हैं, तुम्हें कहां से मिलेंगे ?' फिर पूछने पर उन्होंने सारी घटना सुना दी। क्षुब्धमना श्रीकृष्ण ने हत्यारे के बारे में पूछा तो भगवान् ने कहा-'वापस राजमहल जाते हुए तुम्हें देखते ही जो व्यक्ति मर जायेगा, वही गजसुकुमाल का हत्यारा है।'
कृष्ण वासुदेव वहां से चले, शोकाकुल होने के कारण वे राजमार्ग से न जाकर भीतरी रास्ते से राजमहल गये। रास्ते में सोमिल मिल गया। कृष्ण वासुदेव को देखते ही भय से वहीं गिर पड़ा और मर गया। वासुदेव ने जान लिया कि हत्यारा यही है। रस्सी से उसका पैर हाथी के पैर के साथ बांध दिया गया और सारे शहर में घुमाया गया। उत्कृष्ट तपस्वी ढंढ़ण __एक बार भगवान् नेमिनाथ द्वारिका पधारे । देवों ने समवसरण की रचना की। प्रवचन के उत्सुक द्वारिका के नागरिक विशाल संख्या में पहुंचे। वासुदेव कृष्ण भी आए। प्रवचन हुआ। देशना समाप्ति के बाद वासुदेव कृष्ण ने पूछा-'भन्ते ! आपके श्रमण संघ में वैसे तो सभी साधनाशील हैं, किन्तु सर्वोत्कृष्ट तपस्वी कौन है ? प्रभु ने कहा,- “वैसे तो सभी श्रमण साधनारत हैं, किन्तु तपस्या में उत्कृष्टता आज तुम्हारे पुत्र ढंढ़ण को प्राप्त है। उसे दीक्षा लिये आज छह महिने बीत गये पर उसने मुख में पानी तक नहीं लिया।
प्रभु ने आगे कहा-'मैंने दीक्षा के दिन ही उसे कहा था-किसी दूसरे साधु के साथ जाओगे तो भोजन मिल जायेगा, वरना अन्तराय है, तब तक ये कर्म रहेंगे तब तक आहार पानी मिलेगा नहीं । ढंढ़ण ने उसी क्षण मेरे से यह अभिग्रह ले लिया था कि उसे जिस दिन स्वयं की लब्धि का आहार मिलेगा, उसी दिन