Book Title: Tirthankar Charitra
Author(s): Sumermal Muni
Publisher: Sumermal Muni

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Page 182
________________ भगवान् श्री पार्श्वनाथ / १६३ वाराणसी के आश्रमपद उद्यान में पंचमुष्ठि लोच किया। देव और मनुष्यों की भारी भीड़ के बीच सावद्य योगों का सर्वथा त्याग किया। उस दिन प्रभु के अट्ठम तप (तेला) था। दूसरे दिन उद्यान से विहार कर कोपकटक सन्निवेश में पधारे, वहां धन्य गाथापति के घर पर परमान्न से पारणा किया। देवों ने देव-दुंदुभि द्वारा दान का महत्त्व बताया । उपसर्ग 1 भगवान् अब वैदेह बनकर विचरने लगे । अभिग्रहयुक्त साधना में संलग्न हुए । विचरते-विचरते वे शिवपुरी नगरी में पधारे। वहां कोशावन में ध्यानस्थ खड़े हो गये। कुछ समय बाद प्रभु वहां से विहार कर आगे तापसाश्रम में पहुंचे तथा वहीं पर वट वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा में खड़े हो गये । इधर 'कमठ' तापस ने देव होने के बाद अवधि-दर्शन से भगवान् पार्श्व को देखा। देखते ही पूर्व जन्म का वैर जाग पड़ा । भगवान् को कष्ट देने के लिए वहां आ पहुंचा। पहले तो उसने शेर, चीता, व्याघ्र, विषधर आदि के रूप बनाकर भगवान् कष्ट दिये । किन्तु प्रभु मेरु की भांति अडोल बने रहे। अपनी विफलता से देव और अधिक क्रुद्ध हो उठा। उसने मेघ की विकुर्वणा की । चारों और घनघोर घटाएं छाने लगीं। देखते-देखते मुसलाधार पानी पड़ने लगा। बढ़ता - बढ़ता वह घुटने, कमर छाती को पार करता हुआ नासाग्र तक पहुंच गया। फिर भी प्रभु अडोल थे। तभी धरणेन्द्र का आसन कंपित हुआ । अवधि ज्ञान से उसने भगवान् को पानी में खड़े देखा। सेवा के लिए तत्काल दौड़ आया । वन्दन करके उसने प्रभु के पैरों के नीचे एक विशाल नाल वाला पद्म (कमल) बनाया। स्वयं ने सात फणों का सर्प बन कर भगवान् के ऊपर छत्री कर दी। प्रभु के तो समभाव था, न कमठ पर रोष और न धरणेन्द्र पर अनुराग । कमठासुर देव, फिर भी वारिश करता रहा । धरणेन्द्र ने फटकार कर कमठ से कहा- रे दुष्ट ! अब भी तू अपनी धृष्टता नहीं छोड़ता ? प्रभु तो समता में लीन हैं ओर तू अधमता के गर्त में गिरता ही जा रहा है !" धरणेन्द्र की फटकार से कमठ भयभीत हुआ । अपनी माया समेट कर प्रभु से क्षमायाचना करता हुआ चला गया । उपसर्ग शांत होने पर धरणेन्द्र भी भगवान् की स्तुति कर लौट गया। केवल ज्ञान भगवान् ने तयासी रातें इसी प्रकार अभिग्रह और ध्यान में बिताई। चौरासीवें दिन उन्होंने आश्रमपद उद्यान में धातकी वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुये क्षपक श्रेणी ली । घातिक-कर्मों को क्षय कर केवलत्व को प्राप्त किया । देवेन्द्र ने केवल - महोत्सव किया। समवसरण की रचना की । वाराणसी के

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