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भगवान् श्री अरिष्टनेमि/१५१
आस-पास घूमता रहा। छिद्र देखता रहा। कहीं कमी हो तो किसी तरह अपनी इच्छा पूरी करे। आयंबिल की सतत उपासना होने से वह वैसा नहीं कर सका।
ग्यारह वर्ष से ऊपर समय बीत गया। लोगों ने सोचा-संकट का समय निकल : चुका है। अब इस तपस्या की क्या जरूरत है? विचारों में हास एक साथ ही आया और सबने तपस्या छोड़ दी। दीपायन को अवसर मिल गया। उसने अग्निवर्षा की और सब कुछ जलाना चाहा । वासुदेव कृष्ण और बलरामजी अपने पिता वसुदेव, । माता रोहिणी और देवकी को रथ में बिठाकर, स्वयं रथ को चलाकर नगर से बाहर ले जाने लगे। किंतु राजमहल से बाहर आते-आते बीच में दीवार गिर पड़ी। कृष्ण और बलराम तो बाहर आ गये। किन्तु माता और पिता अन्दर ही रह गए। वसुदेवजी जी ने कहा-'तुम हमारी चिन्ता छोड़ो और सकुशल जाओ। हम अब भगवान् की शरण ग्रहण करते हैं।' बलराम की दीक्षा
पूरी द्वारिका में स्त्री-पुरूषों व बच्चों का क्रंदन हो रहा था । बलदेव व वासुदेव को आज पहली बार अपनी मजबूरी का अनुभव हुआ। भारी मन से दोनों वहां से रवाना हुए। शत्रु राजाओं एवं मार्गवर्ती प्राकृतिक कठिनाइयों को पार करते हुए दुर्गम कौशंबी वन में दोनों भाई पहुंचे। वासुदेव को भयंकर प्यास लगी। भाई बलराम से उन्होंने कहा-'दाऊ ! बड़ी जबर्दस्त प्यास लगी है। अब तो बिना पानी के एक डग भी नहीं रखा जाता। मुझे पानी पिलाओ।' ___ बलराम पानी की खोज में निकले । अत्यन्त क्लांत होने से वासुदेव पीतांबर ओढ़ कर लेट गये। जरा कुमार उसी जंगल में वनवासी होकर रह रहा था। दैव योग से उसने पीतांबर ओढ़े श्री कृष्ण को हरिण समझ कर बाण चला दिया जो उनके दाएं पैर पर लगा। लगते ही वासुदेव बोले- कौन है यह बाण चलाने वाला! मेरे सामने तो आओ।'
श्री कृष्ण की आवाज जराकुमार से अपरिचित नहीं थी। निकट आकर बोले-यह तुम्हारा अभागा भाई जराकुमार हूं। तुम्हारे प्राणों की रक्षा हेतु वनवासी बना पर दुर्देव से मैं तुम्हारे प्राणों का ग्राहक बन गया। कृष्ण ने संक्षेप में द्वारिका दाह, यादव कुल विनाश आदि का वृत्तांत बताते हुए जराकुमार को अपनी कौस्तुभमणि दी और कहा- 'हमारे यादव कुल में केवल तुम ही बचे हो, अतः पाण्डवों को यह मणि दिखाकर उनके पास ही रहना। शोक का त्याग कर शीघ्र ही यहां से चले जाओ। बलराम जी आने ही वाले है। उन्होंने यदि तुम्हें देख लिया तो तुरन्त मार डालेंगे।'
श्रीकृष्ण के समझाने पर जरा कुमार ने पांडव मथुरा की ओर प्रस्थान कर दिया। प्यास के साथ बाण की तीव्र वेदना से पीड़ित श्री कृष्ण ने एक हजार वर्ष