________________
१४२/तीर्थंकर चरित्र
ईशानेन्द्र समुज्ज्वल चंवर बींजते हुए शनैः शनैः कदम उठा रहे थे। माहेन्द्र हाथ में खड्ग, ब्रह्मेद्र दर्पण, लांतकेन्द्र पूर्णकलश, शक्रेन्द्र स्वस्तिक लेकर तथा सहस्रारेन्द्र दिव्य धनुष्य चढ़ाकर आगे-आगे बढ़ रहे थे। प्राणतेन्द्र श्रीवत्स तथा अच्युतेन्द्र नंद्यावर्त धारण किये हुए यात्रा को मंगलमय बना रहे थे। शेष चमरादि इंद्र अपने-अपने आयुधों से सुसज्जित हो अपनी-अपनी पंक्ति का नेतृत्व कर रहे थे। ___ सहस्राम्र उद्यान में पहुंच कर अशोक वृक्ष के नीचे भगवान् ने शेष आभूषण उतारे और पंच-मुष्टि लोच किया। वासुदेव श्रीकृष्ण ने अवस्था में बड़े होने के कारण लुंचितकेश नेमिकुमार को आशीर्वाद देते हुए कहा-'हे दमीश्वर ! आप शीघ्रातिशीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त करें, धर्म का आलोक विश्व में फैलाएं।'
नेमिकुमार ने एक हजार विरक्त व्यक्तियों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की । वासुदेव श्रीकृष्ण आदि सब उन्हें वंदना कर अपने महलों में लौट आये । दीक्षा के दिन भगवान् के तेला था। दूसरे दिन वरदत्त ब्राह्मण के यहां परमान्न से उनका पारणा हुआ। देवों ने पंच द्रव्य प्रकट किए। लोगों को सर्वत्र पता लग गया कि आज वरदत्त के यहां नेमिकुमार का पारणा हुआ है। केवल ज्ञान
भगवान् नेमिनाथ की दीक्षा के बाद चौपन रात्रियां छद्मस्थ अवस्था में बीतीं। उत्कृष्ट विरक्ति से ध्यान के विविध आलम्बनों के द्वारा आत्मलीन होकर महान् कर्मनिर्जरा की । एकदा आप पुनः उज्जयंत रिवतगिरि) पर्वत पर पधारे । उसी रात्रि में उन्होंने क्षपक श्रेणी लेकर केवलत्व को प्राप्त किया।
देवों ने उत्सव कर समवसरण की रचना की। द्वारिका के नागरिक भगवान् के सर्वज्ञ बनने की बात सुनकर हर्षविभोर हो उठे । वासुदेव कृष्ण सहित सभी उत्सुक लोगों ने रेवतगिरि पर भगवान् के दर्शन किये । महासती राजीमती भी भगवान् के दर्शनार्थ वहां पहुंच गई। प्रभु के प्रथम प्रवचन में तीर्थ स्थापित हो गया। वरदत्त आदि अनेक संयमोत्सुक व्यक्तियों तथा यक्षिणी आदि अनेक विरक्त महिलाओं ने संयम धारण कर लिया। समुद्रविजय आदि अनेक राजाओं और शिवादेवी, देवकी, रोहिणी आदि रानियों ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। भगवान् ने वरदत्त आदि ग्यारह व्यक्तियों को गणधर व यक्षिणी आर्या को प्रवर्तनी नियुक्त किया। राजीमती की विरक्ति
महाराज उग्रसेन की पुत्री व श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा की छोटी बहिन राजीमती अत्यन्त रूपवान, लावण्यमयी, सुशील व गुण संपन्न कन्या थी। कुमार अरिष्टनेमि के साथ अपने विवाह-संबंध से वह अत्यन्त प्रफुल्लित थी। वह अपने भाग्य की सराहना कर रही थी कि उसे त्रिलोक सुंदर व गुणवान पति मिल रहे