________________
५६/तीर्थंकर चरित्र
हजार व्यक्तियों के साथ, पंचमुष्टि लोच करके सहस्राम्र उद्यान में प्रभु दीक्षित हुए। दीक्षा के दिन उनके बेले की तपस्या थी। 'तिलोयपन्नत्ति' में तेले के तप का उल्लेख मिलता है।
दूसरे दिन साकेतपुर में राजा इन्द्रदत्त के यहां भगवान् ने प्रथम पारणा किया। अठारह वर्षों तक अभिनंदन मुनि ने कठोर तपश्चर्या द्वारा अपूर्व कर्म- निर्जरा की। वर्धमान परिणामों में शुक्ल-ध्यानारूढ़ होकर उन्होंने क्षपक श्रेणी प्राप्त कर ली। घातिक कर्मों को क्रमशः क्षय करके उन्होंने कैवल्य प्राप्त कर लिया। जिस दिन वे सर्वज्ञ बने, उस दिन अयोध्या में विराजमान थे।
भगवान् के प्रथम प्रवचन के साथ ही 'तीर्थ' की स्थापना हो गई थी बड़ी संख्या में भव्य लोगों ने साधु व श्रावक- व्रत ग्रहण किए। तीर्थंकर अभिनंदन जन्मे, तब लोगों में आनन्द छा गया। उनके राज्य काल में विग्रह समाप्त हो गया और उनके तीर्थंकर काल में भव्य लोगों को भावतः आनन्द मिलने लगा। निर्वाण
आर्य क्षेत्र में गंधहस्ती की भांति भगवान् दीर्घकाल तक विचरते रहे। बाद में अपना अंतकाल निकट जानकर उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ सम्मेद शिखर पर अनशन प्रारंभ कर दिया। एक मास के अनशन में शैलेशी पद पाकर, समस्त कर्मों को क्षय करके उन्होंने सिद्धत्व को प्राप्त किया। देवों और मनुष्यों ने मिलकर भगवान् के शरीर की निहरण क्रिया विधिपूर्वक सम्पन्न की। प्रभु का परिवार
० गणधर ० केवलज्ञानी
१४,००० ० मनः पर्यवज्ञानी
११.६५० ० अवधिज्ञानी
९,८०० ० वैक्रिय लब्धिधारी
१९,००० ० चतुर्दश पूर्वी
१,५०० ० चर्चावादी
११,००० ० साधु
३,००,००० ० साध्वी
६,३०,००० ० श्रावक
२,८८,००० ० श्राविका
५,२७,००० एक झलक0 माता
सिद्धार्था ० पिता
संवर