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भगवान श्री अरिष्टनेमि/१३५
विभोर हो रहे थे। उन बढ़ते परिणामों में राजा ने तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। रानी ने स्वयं को एकाभवतारी (एक भव के अनन्तर मोक्ष जाने वाली) बना लिया। अगले जन्म में महासती राजीमती के रूप में यशोमती ने जन्म लिया था।
एक बार श्रीषेण केवली हस्तिनापुर पधारे। महाराज शंख अपने अनुजद्वय महारानी यशोमती व पूरे राजपरिवार के साथ दर्शन करने गए। प्रवचन सुना। प्रवचन के अनन्तर शंख ने पूछा- "भगवन् ! मेरा यशोमती पर इतना अधिक स्नेह क्यों है?" श्रीषेण केवली ने कहा- "जब तू धनकुमार था तब यह तेरी धनवती पत्नी थी। सौधर्म देवलोक में यह तेरी मित्र हुई। चित्रगति के भव में यह तेरी रत्नवती के रूप में पत्नी हुई ।माहेन्द्र देवलोक में साथी मित्र हुई। अपराजित के भव में यह फिर तेरी प्रीतिमती नाम से पत्नी बनी। आरण देवलोक में यह तेरी मित्र बनी। इस भव में भी यह तेरी पत्नी है। इस तरह यशोमती के साथ तेरा सात भवों का संबंध है। आगामी भव में तुम दोनों अनुत्तर विमान में देव बनोगे। वहां से आयु पूर्ण कर तू भरत क्षेत्र में अरिष्टनेमि नाम से बाइसवां तीर्थंकर बनेगा। यशोमती का नाम राजीमती होगा। तुमसे ही विवाह निश्चित होगा पर यह अविवाहित अवस्था में ही दीक्षित बनेगी और मोक्ष में जाएगी।' ___ अपने पूर्व भव के वृत्तांत को सुनकर शंख को वैराग्य उत्पन्न हो गया। अपने दो भाइयों, पत्नी एवं कई मित्र राजाओं के साथ उसने दीक्षा स्वीकार की। अंत में समाधि मृत्यु प्राप्त कर चौथे अनुत्तर-अपराजित देवलोक में देव बने । जन्म
सुदीर्घ देवायु को भोगकर शौरीपुर नगर के सम्राट् समुद्र विजय के राजप्रासाद में आये। स्वनाम धन्या शिवा रानी की कुक्षि में अवतरित हुए। महारानी शिवा ने चौदह महास्वप्न देखे । स्वप्नपाठकों ने कालगणना व स्वप्न-शास्त्र के आधार पर तीर्थंकर होने की भविष्यवाणी की। सर्वत्र हर्ष छा गया।
गर्भकाल पूरा होने पर सावन शुक्ला पंचमी की मध्य रात्रि की शुभ वेला में भगवान् का जन्म हुआ। देवेन्द्रों ने उत्सव किया। महारानी शिवा पुत्र-प्राप्ति से स्वयं को कृतकृत्य मान रही थी। राजा समुद्रविजय ने अपने दस भाइयों के साथ पुत्र का अपूर्व जन्मोत्सव किया। सबके हृदय में उल्लास व उमंग था। ___ नाम के दिन महारानी शिवा श्याम कांति वाले नवजात शिशु को लेकर आयोजन में आई। लोगों ने बालक को देखा, आशीर्वाद दिया। नाम की चर्चा में राजा समुद्रविजय ने कहा- 'बालक के गर्भ में आने के बाद राज्य सब प्रकार के अरिष्ट से बचा रहा है। इसकी माता को अरिष्ट रत्नमय चक्र (नेमि) का स्वप्न आया था, अतः बालक का नाम अरिष्टनेमि ही रखा जाए।' उपस्थित जनसमूह ने उन्हें इसी नाम से पुकारा ।