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१३८/तीर्थंकर चरित्र
यशोगाथाएं दूर-दूर तक फैल गई। प्रतिवासुदेव जरासंध को जब यह जानकारी मिली कि यादव तो परम सुखमय जीवन जी रहें है तो उन्हें बड़ा क्रोध आया। जरासंध ने यादवों के साथ युद्ध करने का निश्चय किया ताकि कालकुमार को छल-प्रपंच से मारे जाने का बदला लिया जा सके और पुत्री जीवयशा की प्रतिज्ञा पूरी हो सके। श्री कृष्ण ने जब कंस का वध कर उसके अत्याचारों से मथुरा को मुक्ति दिलाई थी उस समय विलाप करती हुई कंस पत्नी जीवयशा ने कहा था'मै बलराम, कृष्ण, दशों दशार्ह समेत पूरे यदुवंश का सर्वनाश देखकर ही शांत बैलूंगी, अन्यथा मैं अग्नि प्रवेश कर दूंगी।'
शुभ मुहूर्त में यादवों की चतुरंगिणी सेना रणक्षेत्र की और प्रस्थित हुई। उधर जरासंध की सेना भी आ डटी। कुछ विद्याधर राजा रणक्षेत्र में पहुंचे और महाराज समुद्र विजय से बोले-हमारे पर वसुदेवजी का बड़ा उपकार है इसलिए हम आपके कृतज्ञ हैं। हमारी विद्याधर श्रेणी के अनेक शक्तिशाली राजा जरासंध के मित्र हैं। वे अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आ रहे हैं। आप वसुदेव को हमारा सेनापति नियुक्त करके भेजें जिससे हम उन्हें वहीं उलझायें रखे। वसुदेव जी उधर चले गये।
जरासंध व यादवों की सेना में भयंकर युद्ध छिड़ गया। इसमें बहुत बड़ी संख्या में योद्धा खेत रहे । जरासंध के पुत्रों को यादव वीरों ने मार डाला। अपने पुत्रों को मरते देख जरासंध अत्यन्त कुपित हुआ और वाण वर्षा करते हुए यादव सेना को मथने लगा। यादव सेना हतप्रभ सी हो गई।
अरिष्टनेमि भी युद्ध भूमि में उपस्थित थे। उनके लिए सर्व शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित रथ को मातलि सारथि के साथ इन्द्र ने भेजा। मुख्य यादव वीर घिरे हुए थे। नेमिकुमार ने अवसर देख युद्ध की बागडोर अपने हाथ में ली। कुमार के आदेश से मातलि ने रथ भीषण वर्तुल वायु की तरह घुमाया। पौरंदर शंख का कुमार ने घोष किया। शंख के निनाद से शत्रु कांप उठे । यादवों में नये उत्साह का संचार हो गया। वाणों की जबर्दस्त वर्षा करते हुए उन्होंने जरासंध की सेना को पीछे धकेल दिया। इस चामत्कारिक विजय से यादव सेना जोश से भर उठी और उसने भयंकर आक्रमण शुरू कर दिया। अपने रथ को मनोवेग से शत्रु राजाओं के चारों और घुमाते हुए जरासंध की सेना को अवरुद्ध रखा। अंत में श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से जरासंध को मारकर ऐतिहासिक विजय प्राप्त की। और उसी से वे नौवें वासुदेव व बलराम बलदेव बने। अपरिमित बल
एक बार नेमिकुमार घूमते-घूमते वासुदेव कृष्ण के शस्त्रागार में जा पहुंचे। अवलोकन करते हुए उन्होंने वहां पांचजन्य शंख को देखा । कौतूहल वश वे उसे