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| भगवान् श्री अनन्तनाथ
तीर्थंकर गोत्र का बंध ___ चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ अपने पूर्व जन्म में धातकी खंड पूर्व विदेह के ऐरावत विजय की अरिष्टा नगरी के राजा पद्मरथ के रूप में भूमण्डल में सर्वाधि कि वर्चस्वी राजा थे। सब राजाओं पर इनकी धाक थी। पद्मरथ के विरूद्ध संघर्ष की बात तो दूर, विरोध में बोलने की हिम्मत भी किसी में नहीं थी। वे निष्कंटक राज्य सत्ता का उपभोग करते रहे।
एक बार गुरु चित्तरक्ष अरिष्टा नगरी में पधारे। राजा स्वयं दर्शनार्थ आये। उस प्रवचन में जीवन के ऊर्ध्व लक्ष्य के बारे में सुनकर वे चौंक उठे । सोचने लगे'जीवन का ध्येय बहुत ऊंचा है तूने अधम भोग-वासना की तृप्ति में स्वयं को लगा रखा है, फिर ध्येय की प्राप्ति कैसे होगी ? अब भी समय है, आदर्श की प्राप्ति के लिए। अब भी राज्य को छोड़ कर क्यों नहीं गुरुदेव के चरणों में साधनालीन बन जाऊं !" ___ राजा पद्मरथ ने इसी निर्णय के साथ अपने पुत्र को राज्य सौंपकर गुरु चित्तरक्ष के पास में दीक्षा ग्रहण कर ली। घोर तपस्या व उत्कृष्ट साधना के द्वारा महान् कर्म-निर्जरा करके तीर्थंकर गोत्र का बन्ध किया । अन्त में आराधक पद पाकर दसवें स्वर्ग में महर्धिक देव विमान को सुशोभित किया। जन्म
देव आयुष्य की समाप्ति पर वे भरत क्षेत्र की समृद्ध नगरी अयोध्या में आए। वहां अयोध्या नरेश सिंहसेन की महारानी सुयशादेवी की कुक्षि में अवतरित हुए। महारानी सुयशादेवी ने तीर्थंकर के आगमन के सूचक चौदह महास्वप्न देखे। सारे शहर में खुशी छा गई। स्वप्नों के फल सुनकर लोग हर्ष से ओतप्रोत बन गये।
गर्भकाल पूर्ण होने पर वैशाख कृष्णा त्रयोदशी की मध्य रात्रि में बिना किसी पीड़ा और बाधा के उनका जन्म हुआ। देवताओं के उत्सव मनाने के बाद राजा सिंहसेन ने समूचे राज्य में जन्मोत्सव की घोषणा की। बन्दीघर खाली कर दिये