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भगवान् श्री कुंथुनाथ
तीर्थंकर गोत्र का बंध
जंबूद्वीप के पूर्व महाविदेह में आवर्त देश की खड्गी नगरी में प्रबल प्रतापी सिंहावह राजा थे। विशाल भोग सामग्री के रहते हुए भी अपनी प्यारी प्रजा की सुख-सुविधा को जुटाने में वे सदैव संलग्न रहते थे। राजा को सन्तों का सम्पर्क समय-समय पर मिलता रहता था । सन्तों की अध्यात्म-वाणी से राजा का झुकाव भी अध्यात्म की ओर था। राजा कई बार सोचते थे कि संयम लेकर साधना करूं, किन्तु राज्य संचालन के दायित्व में उलझ कर वे फिर भूल जाते थे। आखिर पुत्र के योग्य होने पर राजा सिंहावह ने अपनी कल्पना को साकार बना ली। राज्य भार से मुक्त होकर उन्होंने संवराचार्य के पास श्रमणत्व स्वीकार कर लिया ।
विविध अनुष्ठानों से राजर्षि ने विशेष कर्म-निर्जरा की और विशिष्ट पुण्य - प्रकृतियों का बंध किया । ध्यान के द्वारा उन्होंने आत्मा को सर्वथा पवित्र बना लिया। उनके तीर्थंकर गोत्र और चक्री पद दोनों का अनुबन्ध हो गया। अन्त में अनशनपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर वे सर्वार्थसिद्ध महाविमान में सर्वोत्कृष्ट स्थिति वाले देव बने ।
जन्म
देवलोक के सुख भोगकर राजा का जीव इसी भरत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में राजा सूरसेन के राजमहल में महारानी श्रीदेवी की पवित्र कुक्षि में आकर अवतरित हुआ। महारानी ने अर्ध सुषुप्तावस्था में चौदह महास्वप्न देखे। कोई महापुरुष महारानी की कुक्षी में आया है, यह सबको ज्ञात हो गया । सर्वत्र प्रसन्नता छा गई, सब जन्म की प्रतीक्षा करने लगे ।
गर्भकाल पूरा होने पर वैशाख कृष्णा चतुर्दशी की मध्यरात्रि में बालक का प्रसव हुआ। देवों ने उत्सव किया। भगवान् के नवजात शरीर को मेरु पर्वत पर पण्डुक वन में ले गये। वहां विविध स्थानों के पवित्र पानी से उनका अभिषेक किया । अपने उल्लास को प्रकट करने के बाद पुनः शिशु को यथास्थान अवस्थित कर देवगण अपने-अपने स्थान चले गये ।