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भगवान् श्री नमिनाथ
तीर्थकर गोत्र का बंध
जंबू द्वीप के पश्चिम महाविदेह में भरत विजय की कौशंबी नगरी के राजा सिद्धार्थ ने अपने राज्य की उत्तम व्यवस्था कर रखी थी। पारस्परिक विग्रह समाप्त प्रायः था। राज्य में किसी भी वस्तु का अभाव नहीं था। हर व्यक्ति अपने-अपने स्थान पर संतुष्ट थे। एकदा संसार की नश्वरता पर चिंतन करते-करते वे विरक्त हो साधुत्व-ग्रहण के लिए उद्यत बने । उसी दिन उन्होंने सुना कि नगर के उद्यान में नंदन मुनि पधारे हैं। राजा ने मुनि के दर्शन किए। राज्य-संचालन की व्यवस्था करके स्वयं मुनि-चरणों में दीक्षित हो गए।
सिद्धार्थ मुनि विविध तपस्या व पारणे में अभिग्रह करते हुए रुग्ण साधुओं की वैयावृत्त्य विशेष रूप से किया करते थे। वे धर्मसंघ के आलंबन बन गये थे। संचित कर्मों की महान् निर्जरा करके उन्होंने तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। अन्त में अनशनपूर्वक प्राण छोड़ कर अनुत्तर स्वर्ग लोक के अपराजित महाविमान में महर्धिक देव बने। जन्म
देवलोक का आयुष्य भोग कर मिथिला नगरी के राजा विजय के राजप्रासाद में आये, महारानी वप्रा की उत्तम कुक्षि में अवतरित हुए। महारानी वप्रा ने देवाधिदेव के गर्भागमन के सूचक चौदह महास्वप्न देखे। स्पप्नपाठकों से सबको पता लग गया कि गर्भगत बालक त्रिलोक पूज्य है, सबके लिए आनन्दकारी है। समुचित आहार-विहार से गर्भ का पालन होने लगा। ___ गर्भकाल पूर्ण होने पर सावन कृष्णा अष्टमी की मध्य रात्रि में प्रभु का पावन प्रसव हुआ। प्रभु के जन्म के समय सर्वत्र उल्लास था। देवेन्द्रों ने उत्सव किया। राजा विजय ने अत्यधिक उत्साह से पुत्र का पूरे राज्य में जन्मोत्सव मनाया। राज्य
का हर नागरिक सहज उल्लास से उल्लसित था। . नाम के दिन विशाल जनसमूह के बीच राजा विजय ने कहा- 'हमारा जनपद