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| भगवान् श्री अरिष्टनेमि
चौबीस तीर्थंकरों में इक्कीस तीर्थंकर प्राग् ऐतिहासिक काल में हुए । तेईसवें पार्श्व व चौबीसवें महावीर ऐतिहासिक महापुरुष हैं। बाइसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को पहले प्राग् ऐतिहासिक महापुरुष माना जाता था । आज कई विद्वानों के अभिमत में वे ऐतिहासिक हैं। संदर्भो व उल्लेखों से अब यह निश्चित रूप से प्रमाणित हैं कि भगवान् अरिष्टनेमि ऐतिहासिक महापुरुष थे। उनके नौ भवों का वर्णन उपलब्ध होता हैं। पहला व दूसरा भव
जंबू द्वीप के भरत क्षेत्र में अचलपुर नाम के नगर में राजा विक्रमधन राज्य करते थे। उनकी पटरानी धारिणी थी। पटरानी ने शुभ स्वप्न के साथ गर्भ धारण किया। पुत्र जन्मने पर उसका नाम दिया गया धनकुमार । युवा होने पर धन कुमार का विवाह कुसुमपुर नरेश सिंह की पुत्री राजकुमारी धनवती के साथ हुआ। __एक दिन दोनों जल क्रीड़ा के लिए गए। वहां एक मुनि को रूग्ण पाया। उन्होंने मुनि की सेवा की। मुनि के नगर पधारने पर निर्दोष आहार, पानी, दवा आदि से खूब सेवा-भक्ति की। मुनि के उपदेश से उन्होंने सम्यक्त्व सहित श्रावक के व्रत धारण किए। विक्रमधन ने धन कुमार को राजा बनाया और दीक्षित हो गए।
महाराज धन व महारानी धनवती ने अपने पुत्र जयंत को राज्य का भार सौंपकर दीक्षा ली। अंत में समाधि मरण प्राप्त कर सौधर्म (पहले) देवलोक में दोनों महर्धिक देव बने। तीसरा व चौथा भव ___ भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणियों में सूरतेज नगर था। वहां विद्याधर सूर राजा था। उसकी विद्युन्मती रानी थी। धन कुमार का जीव सौधर्म देवलोक से च्यव कर विद्युन्मती के गर्भ में आया । गर्भकाल समाप्त होने पर पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम दिया गया चित्रगति।
वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में शिव मंदिर नगर में अनंत सिंह राजा था। उसकी रानी शशिप्रभा थी। धनवती का जीव उसकी पुत्री रत्नवती के रूप में जन्मा।