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भगवान् श्री विमलनाथ
तीर्थंकर गोत्र का बन्ध ___ सर्वज्ञता प्राप्ति के लिए दीर्घकालीन प्रयत्न की आवश्यकता है। सिर्फ एक भव का प्रयत्न ही काम नहीं आता, अनेक भवों के प्रयत्नों से ही आत्मा की उज्ज्वलता सम्भव है। प्रत्येक तीर्थंकर ने अपने पूर्व जन्मों में विभिन्न प्रकार से साधना की थी।
भगवान् विमलनाथ ने भी अपने पूर्व जन्म में, धातकीखंड के पूर्व विदेह में भरत विजय की महापुरी नगरी के नरेश पद्मसेन के रूप में काफी ख्याति अर्जित की थी। आचार्य सर्वगुप्त के पास दीक्षा लेकर उत्कट साधना में संलग्न बने । बीस स्थानों का विशेष रूप से आसेवन किया। धर्म ध्यान व शुक्ल ध्यान से महान् कर्म निर्जरा कर उन्होंने तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। अनशन व आराधनापूर्वक शरीर त्याग करने पर वे आठवें देवलोक के महर्धिक विमान में देव के रूप में उत्पन्न
हुए।
जन्म
आठवें स्वर्ग में पूर्ण देवायु भोग कर वे भरत क्षेत्र की कंपिलपुर नगरी के राजा कृतवर्मा के यहां आये। महारानी श्यामा की पावन कुक्षि में अवतरित हुए। माता ने चौदह महास्वप्न देखे । स्वप्नों के आधार पर स्वप्न पाठकों ने तीर्थंकर महापुरुष के जन्म लेने की एक स्वर से घोषणा की। सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़ गई। सर्वत्र चौदह महास्वप्न तथा उनके फल की चर्चा थी। ___ गर्भकाल पूरा होने पर माघ शुक्ला तृतीया की रात्रि में प्रभु का जन्म हुआ। स्वर्ग में तत्काल दिव्य घंटी बजने लगी। घंटी बजते ही देवों को प्रभु के जन्म का पता लग गया। चौसठ इन्द्रों के साथ बड़ी संख्या में देव जन्मोत्सव करने आ पहुंचे। उत्सव के बाद राजा कृतवर्मा ने परम उत्साह से जन्मोत्सव मनाया। सारे नगर में बधाई बांटी गई। बाहर का जो भी व्यक्ति आया, उसे राजकीय भोजनशाला में भोजन करवाया गया। नामकरण समारोह में नगर के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मिलित हुए। महारानी परम तेजस्वी बालक को गोद में लेकर आयोजन स्थल पर आई। पुत्र को देखकर सभी चकित हो गए।