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-06 | भगवान श्री चंद्रप्रभ प्रभु
तीर्थंकर गोत्र का बंध ___ अनेक जन्मों की सक्रिया के फलस्वरूप धातकी खंड के पूर्व विदेह क्षेत्र की मंगलावती विजय की रत्नसंचया नगरी के राजा पदम के भव में चंद्र प्रभु को धर्म प्रेरणा का अच्छा योग मिला था। शहर में साधुओं का आना- जाना प्रायः रहता था। धर्म की प्रेरणा सामान्यतः धर्मगुरु सापेक्ष ही होती है। वे जिस ग्राम, नगर में जाते हैं, वहीं धर्म की गंगा सतत प्रवाहित रहती है। धर्मगुरुओं के अभाव में धर्म की प्रेरणा लुप्त हो जाती है, फिर सामूहिक साधना दुरूह बन जाती है। उस रत्नसंचया के लोग इस विषय में भाग्यशाली थे। उन्हें साधु- संतों की सदैव प्रेरणा मिलती रहती थी।
युगंधर मुनि के पास राजा पद्म दीक्षित हुआ। वह तपस्या के साथ वैयावृत्त्य भी करने लगा। बीस स्थानों की विशेष साधना की। पूर्वकृत कर्मों को क्षय किया। तीर्थंकर गोत्र का बंध किया । अंत में अनशनपूर्वक आराधक पद पाकर अनुत्तर लोक के विजय विमान में देवत्व को प्राप्त किया। जन्म
देवत्व का आयुष्य भोगने के बाद भगवान् चंद्रप्रभ का जीव स्वर्ग से च्यवकर चंद्रपुरी के राजा महासेन की रानी लक्ष्मणा देवी की पवित्र कुक्षि में अवतरित हुआ। माता लक्ष्मणा ने चौदह महास्वप्न देखे । सवेरे स्वप्न पाठकों ने बतलाया तीर्थंकर अवतरित हुए हैं। महारानी गर्भावस्था में पूर्ण सावधानी बरतने लगी। उसने अपना खाना, पीना, बोलना उठना तथा बैठना आदि संयमपूर्वक करना प्रारम्भ कर दिया। ज्यादा हंसना, ज्यादा बोलना, तेज बोलना, गुस्सा करना प्रयत्नपूर्वक बंद कर दिया। अति मीठा, अति चरचरा भोजन भी सर्वथा छोड़ दिया।
इस प्रकार सजगतापूर्वक प्रतिपालना करते हुए गर्भकाल पूरा हुआ। पौष कृष्णा एकादशी की रात्रि में भगवान् का मंगलमय प्रसव हुआ। प्रसव की पुनीत बेला में चौसठ इंद्रों ने एकत्रित होकर उत्सव मनाया। सुमेरू पर्वत पर पांडुक वन में वे शिशु को ले गए, उसके नवजात शरीर पर जलाभिषेक किया गया। अभिषेक के