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| भगवान् श्री शीतलनाथ
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तीर्थंकर गोत्र का बंध
अर्ध पुष्कर द्वीप की वज्र विजय की सुसीमा नगरी के राजा पद्मोत्तर मानवीय गुणों से परिपूर्ण थे। उन्होंने अपने राज्य में ऐसी व्यवस्था की कि सब व्यक्ति आत्म-सम्मान के साथ जीवन यापन कर सकें। उनके राज्य में कोई भी व्यक्ति परमुखापेक्षी नहीं था। सबका पुरुषार्थ में विश्वास था। व्यवस्था भी ऐसी थी कि पुरुषार्थ करने वाला आनन्द से पेट भर लेता था। बेकारी क अभाव में अपराधों का भी अभाव था। लोग सात्विक व शालीन जीवन बिता रहे थे।
राजा पद्मोत्तर ने अपने पुत्र को राज्य संचालन के योग्य समझ कर उसका राज्याभिषेक किया तथा स्वयं ने 'स्रस्ताघ' आचार्य के पास में मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। मुनि संघ की परिचर्या और घोर तपस्या उनकी कर्म निर्जरा के मुख्य साधन बने । बीमार व अक्षम साधुओं के आधार बनने के कारण उनके महान् कर्म निर्जरा हुई, साथ में तीर्थंकर गोत्र का बंध हुआ। अंत में अनशन करके उन्होंने समाधि मरण पाया तथा प्राणत-स्वर्ग में देव बने । जन्म
बीस सागर का परिपूर्ण आयु भोग कर आर्य जनपद के भद्दिलपुर नगर में राजा दृढ़रथ की महारानी नन्दादेवी की कुक्षि में अवतरित हुए। संसार में जन्म लेने वाले सर्वश्रेष्ठ और परमाधम व्यक्ति कभी छुपे नहीं रहते । माता को आये चौदह महास्वप्नों से सबको ज्ञात हो गया कि महापुरुष का जन्म होने वाला है। लोगों के दिलों में भारी उमंग था। सब प्रभु के जन्म की प्रतीक्षा में थे। __गर्भकाल की परिसमाप्ति पर माघ कृष्णा द्वादशी की मध्य रात्रि में निर्विघ्नता से भगवान् का जन्म हुआ। भगवान् के जन्म पर विश्व का कण-कण पुलकित हो उठा। राज्य भर में जन्मोत्सव मनाया गया।
नामकरण के दिन विशाल प्रीतिभोज का आयोजन किया गया। बालक को आशीर्वाद देने के बाद नाम की चर्चा चली। राजा दृढ़रथ ने कहा- 'कुछ महीनों पहले मेरे शरीर में दाह-ज्वर उत्पन्न हुआ था। सारे शरीर में जलन थीं,