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५२/तीर्थकर चरित्र
साधना करते-करते वहीं पर कार्तिक कृष्णा पंचमी को शुक्ल- ध्यान के साथ भगवान् उच्च- श्रेणी पर आरूढ़ हुए। मोह को क्षय करने के साथ क्षायिक चारित्रवान् बने । अन्तर्- मुहूर्त में ही शेष तीन घाती-कर्मों का क्षय करके उन्होंने सर्वज्ञता प्राप्त की।
इन्द्रों ने भगवान् का केवल- महोत्सव किया। भगवान् के जन्म व दीक्षा- भूमि के लोगों ने जब भगवान् की सर्वज्ञता सुनी तो सुखद आश्चर्य के साथ उद्यान में दर्शनार्थ उमड़ पड़े। वंदन करके सुर- रचित समवसरण में सारे बैठ गए। भगवान् ने देशना दी। आगार व अणगार दोनों प्रकार की उपासना निरूपित की। प्रथम देशना में चतुर्विध (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) संघ की स्थापना हो गई। निर्वाण
प्रभु ने आर्य जनपद में दीर्घकाल तक विचरण किया। लाखों भव्य जनों का उद्धार किया। अंत में अपना महाप्रयाण निकट समझ कर उन्होंने सम्मेद शिखर पर १००० साधुओं के साथ अनशन कर लिया। शुक्ल ध्यान के चतुर्थ चरण में पहुंच कर उन्होंने क्रिया मात्र का विच्छेद कर दिया । अयोगी अवस्था को पाकर उन्होंने शेष अघाति कर्मों को क्षय किया और सिद्धत्व को प्राप्त हुए। प्रभु का परिवार० गणधर.
१०२ ० केवलज्ञानी
१५,००० ० मनः पर्यवज्ञानी
१२,१५० ० अवधिज्ञानी
९,६०० ० वैकिय लब्धिधारी
१९,८०० ० चतुर्दश पूर्वी
२,१५० ० चर्चावादी
१२,००० ० साधु
२,००,००० ० साध्वी
३,३६,००० ० श्रावक
२,९३,००० ० श्राविका
६.३६,००० एक झलक० माता
सेना ० पिता
जितारि ० नगरी
श्रावस्ती ० वंश
इक्ष्वाकु ० गोत्र
काश्यप