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भगवान् श्री अजितनाथ/४७
सोचा- पूज्य पिताजी को प्रतिदिन नया कुआं खोद कर पानी पिलाना चाहिए। दूसरे दिन से यह क्रम चालू हो गया। चक्रवर्ती के मूशलरत्न का इस कार्य में प्रयोग किया जाने लगा। मूशलरत्न से कुआ तत्काल खुद जाता था। उस कुएं के पानी को अपने पिता के पीने के लिए प्रस्तुत करते थे।
एक दिन वे अनजान में किसी नागकुमार देवता के स्थान को खोदने लगे। नागदेव ने इनका विरोध किया, किन्तु सत्ता के उन्माद में किसी ने ध्यान नहीं दिया प्रत्युत उसकी मखौल उड़ाने लगे। क्षुब्ध नागदेव ने अपने अधिकारी देव के पास उनकी शिकायत की। अधिकारी देव ने उनको चेतावनी दी, फिर भी वे नहीं माने। अधिकारी देव ने क्रुद्ध होकर उस कुए में से इतने वेग से पानी निकाला कि सब एक साथ पानी के प्रवाह में बहकर मर गये।
सम्राट् सगर की कुल देवी भी इस भवितव्यता को टाल नहीं सकी । वह सगर का समझाने की दृष्टि से बुढ़िया का रूप बनाकर सम्राट् जिधर घूमने गये थे, उधर चिल्ला- चिल्ला कर पुत्र- शोक में रोने लगी। सम्राट ने उसे धैर्य देने का प्रयत्न किया। इस पर बुढ़िया ने दुःखी स्वर से कहा- जिस पर बीतती है उसे ही पता चलता है। सम्राट ने कहा- यह तो ठीक ही हैं। किंतु मेरे पर अगर कभी ऐसी बोतेगी, तो में धैर्य रखूगा। बुढ़िया ने तत्काल पूछा- क्या पक्की बात है?
सम्राट् ने कहा- मेरी वाणी कभी कच्ची नहीं होती। बुढ़िया ने तत्काल देवी के रूप में प्रकट होकर उस दुःखद संवादे को सुनाया। ___ सम्राट् को भारी आघात लगा, किन्तु वे उसे पी गये। संसार की नश्वरता उनके सामने साकार हो गई सम्राट् सगर तत्काल पौत्र भगीरथ को राज्य देकर दीक्षित हो गये। क्रमशः उत्कृष्ट साधना करके मुक्त बने। निर्वाण
__ भगवान् अजितनाथ ने जब अपना निर्वाण निकट देखा तो एक हजार साधुओं के साथ सम्मेद शिखर पर पहुंचे। एक मास के अनशन में उन्होंने समस्त कर्मों को क्षय करके सिद्धत्व को प्राप्त किया। प्रभु का परिवार० गणधर
- ९५ ० केवलज्ञानी
- २२,००० ० मनः पर्यवज्ञानी
१२,५०० ० अवधिज्ञानी
- ९,४०० ० वैक्रिय लब्धिधारी
- २०,४०० ० चतुर्दश पूर्वी
- ३,७२० ० चर्चावादी
- १२,४००