________________
भगवान् श्री ऋषभदेव/४१
ऋषभ ने अपना राज्य भरत को दिया। तब से यह हिम वर्ष भारत वर्ष के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वैदिक ग्रंथों में ऋषभ की साधना का सुंदर विवेचन मिलता है-ऋषभ देव ने कठोर चर्या व साधना का मार्ग स्वीकार किया। उनकी लंबी तपस्या से शरीर कांटे की तरह सूख गया। उनकी शिराएं व धमनियां स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगी। आखिर नग्नावस्था में उन्होंने महाप्रस्थान किया!
ऋगवेद में भगवान ऋषभ को पर्व ज्ञान का प्रतिपादक व दखों का नाश करने वाला बताया है। वेद के मंत्रों, पुराणों व उपनिषदों में उनका प्रचुर उल्लेख हुआ है। इस देश का नाम भी भरत चक्रवर्ती के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ है। यह विवेचन मार्कण्डेय पुराण, कूर्म पुराण, अग्नि पुराण, वायु महापुराण, विष्णु पुराण आदि ग्रंथों में आता है। भारत के आदि सम्राटों में नाभि पुत्र ऋषभ और ऋषभ पुत्र भरत की गणना की गई है। वे व्रत पालन में दृढ़ थे। वे ही निर्ग्रन्थ तीर्थंकर ऋषभ जैनों के आप्त देव थे। धम्मपद में ऋषभ को सर्वश्रेष्ठ वीर कहा है। निर्वाण
सर्वज्ञता के बाद भगवान् का जनपद विहार काफी लम्बा हुआ था। कहां अयोध्या और कहां वहली! कहां यूनान और कहां स्वर्णभूमि! अनार्य मानी जाने वाली भूमि का भी काफी हिस्सा भगवान् के चरणों से स्पृष्ट हुआ था। लाखों सरल आत्मज्ञ व्यक्ति भगवान की शरण में आकर कल्याण के पथ पर अग्रसर बने थे।।
भगवान् अपने जीवन का अवसान निकट समझकर दस हजार साधुओं के साथ अष्टापद पर्वत (कैलाश) पर चढ़े। अवसर्पिणी के तीसरे आरे के तीन वर्ष साढे आठ मास जब शेष रहे, तब छह दिनों के अनशन (निराहार) तप में अयोगी अवस्था पाकर, शेष अघाती कर्मों का क्षय करके वे परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। भगवान् ऋषभ ने पर्यंकासन में सिद्धत्व को प्राप्त किया था। भगवान् के निर्वाण का दिन माघ कृष्णा त्रयोदशी का था। भगवान् का समग्र आयुष्य ८४ लाख पूर्व का था। प्रभु का परिवार
भगवान् ने जब दीक्षा ली तब चार हजार शिष्य उनके साथ थे, किन्तु प्रभु की मौन व कठोर साधना की अजानकारी से सब छिन्न-भिन्न हो गए थे। केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद उनका धार्मिक परिवार पुनः बढ़ने लगा। उनके परिवार में चौरासी हजार श्रमणों का होना अद्भुत धर्मक्रांति का ही परिणाम था। उनकी व्यवस्था के लिए भगवान् ने चौरासी गण बनाए। प्रत्येक गण का एक-एक मुखिया स्थापित किया, जिसे गणधर कहा जाने लगा। भगवान् के प्रथम गणधर ऋषभसेन थे। ० गणधर
८४ ० केवलज्ञानी
२०,००० ० मनःपर्यवज्ञानी
१२,७५०