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४४/तीर्थंकर चरित्र
देखे। पुत्र-रत्न का घर में आना ही खुशी की बात होती है, उसमें भी जगत् त्राता का घर में अवतरित होना और भी आनंद मंगल की बात थी।
सवेरे स्वप्नशास्त्रियों को बुलाकर दोनों रानियों के स्वप्नों के फल पूछे गये। स्वप्नशास्त्री चकित थे कि एक साथ दो रानियों को चौदह महास्वप्न कैसे आए? काफी विचार-विमर्श के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि एक तीर्थंकर और एक चक्रवर्ती का जन्म होना चाहिए। समूचे परिवार में हर्ष का वातावरण छा गया। दोनों महारानियां सावधानी से गर्भ का पालन करने लगी। जन्म
माघ शुक्ला अष्टमी की मध्यरात्रि की मंगल बेला में गर्भकाल पूरा होने पर सुखपूर्वक भगवान् का जन्म हुआ। चौसठ इन्द्र एकत्रित हुए। राजा ने जन्मोत्सव मनाया। इस अवसर पर सब कैदियों को मुक्त कर दिया गया। घर-घर में आनन्द का वातावरण छा गया। ग्यारह दिनों तक राजकीय उत्सव मनाया गया। नामकरण
नामकरण के दिन पारिवारिक प्रीतिभोज का आयोजन किया गया। समस्त पारिवारिक लोगों ने पुत्र को गोद में ले लेकर आशीर्वाद दिया। किस नाम से पुकारा जाए, इस परिचर्चा में महारानी विजयादेवी ने कहा-शादी के बाद कई बार महाराजा के साथ द्यूत-क्रीड़ा का अवसर आया, किन्तु प्रत्येक बार हार खानी पड़ी थी। मेरे मन में आकांक्षा थी कि कम से कम एक बार तो मैं भी इनको जीतूं । यह मनोकामना इस बच्चे के गर्भ में आने बाद पूरी हुई। उन दिनों मैंने जितनी बार जूआ खेला, विजय मेरी हुई। उस समय मैं अजेय बन गई।
सम्राट् जितशत्रु ने कहा- आसपास के राज्यों से जो सूचना तथा शत्रु राज्यों से गुप्तचरों की जो रिपोर्ट मिली है, वह बहुत ही आश्चर्यजनक है। इन महीनों में शत्रु राज्यों के दिलों में भी यह भावना उत्पन्न हुई है कि महाराजा जितशत्रु अजेय हैं। इन्हें जीतना असम्भव है। इनके साथ शत्रुता प्राणघातिनी सिद्ध हो सकती है, ऐसी एक भावना बन गई है। यद्यपि मैंने युद्ध की तैयारी नहीं की है, तथापि इन शुभ- संकेतों का उत्पन्न होना मैं तो इस बालक का प्रभाव ही मानता हूं | अतः मेरे चिन्तन में बालक का नाम अजितनाथ रखा जाए।' गुण- निष्पन्न इस नाम पर तुरन्त सबकी सहमति मिल गई । छोटे भाई सुमित्र के पुत्र का नाम 'सगर' रखा गया। विवाह और राज्य
क्रमशः दोनों बालक बड़े हुए। युवावस्था में प्रवेश करने पर वंश परम्परा के अनुसार अनेक राजकन्याओं से दोनों की शादी कर दी गई। दोनों भाई महलों में पंचेन्द्रिय सुखोपभोग करते हुए रहने लगे।