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१२/तीर्थंकर चरित्र
२१. स्वर्ण कमल पर पैर धर कर चलते हैं। २२. स्वर्ण, रजत व रत्नमय समवसरण की रचना होती है। किला (गढ़) होता
२३. समवसरण में चारों दिशाओं में चार मुख दिखाई देते हैं। २४. जहां ठहरते हैं या बैठते हैं वहां अशोक वृक्ष प्रकट होता हैं। २५. कांटे औंधे हो जाते हैं। २६. वृक्ष नम/झुक जाते हैं। २७. दुंदुभि नाद होता है। २८. अनुकूल हवा चलती है। २९. पक्षी प्रदक्षिणा करते हैं। ३०. सुगंधित पानी की वर्षा होती है। ३१. उत्तम जाति व रंगों के फूलों की वृष्टि होती है। ३२. केश, दाढ़ी, मूंछ व नख नहीं बढ़ते। ३३. चारों ही प्रकारों के देवों में (व्यन्तर, भवनपति, ज्योतिषी व वैमानिक) कम
से कम एक करोड़ देवता सेवा करते हैं। ३४. ऋतुओं की अनुकूलता रहती है तथा मनोज्ञ शब्द, रूप गंध, रस व स्पर्श
रूप इंद्रिय विषय अनुकूल रहते हैं।
ये उन्नीस अतिशय देवकृत होते हैं। इस तरह जन्म के साथ चार, कर्म क्षय से ग्यारह व देवकृत उन्नीस (४+११+१९=३४) कुल चौतीस अतिशय होते हैं।
पेंतीस वचनातिशय १. संस्कारवत्त्व - सुसंस्कृत वाणी अर्थात् भाषा व व्याकरण की दृष्टि से
निर्दोष होना। २. औदात्त्य - उदात्त स्वर अर्थात् स्वर का ऊंचा होना। ३. उपचारपरीतता – ग्राम्य-दोष से रहित होना। ४. मेघगंभीर घोष – आवाज में मेघवत् गंभीरता होना। ५. प्रतिनाद - वाणी का प्रतिध्वनि सहित होना। ६. दक्षिणत्त्व - भाषा का सरल होना। ७. उपनीत रागत्व- मालकोश रागयुक्त होना। ८. महार्थता - विशाल अर्थ वाली, थोड़े में अधिक कहना। ९. अव्याहतत्व - वाणी में पूर्वापर विरोध न होना। १०. शिष्टत्व - शिष्ट भाषा का होना।