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भगवान् श्री ऋषभदेव
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भगवान् ऋषभ का जन्म यौगलिक (अरण्य) संस्कृति के अंत में हुआ था। यौगलिक व्यवस्था उस समय छिन्न-भिन्न हो रही थी। समुचित व्यवस्था देने वाला कोई नहीं था। कुलकरों ने जो व्यवस्था की, वह कुछ समय के बाद प्रभावहीन व निस्तेज होती गई। नित नई उलझनें बढ़ती जा रही थी। स्वयं नाभि कुलकर भी किसी तरह इस दायित्वपूर्ण पद से छुटकारा पाना चाहते थे। कहीं कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था। उस समय भगवान् ऋषभ का जन्म हुआ। पूर्व भव
भगवान् ऋषभदेव का जीव मुक्ति से पूर्व तेरहवें भव में महाविदेह क्षेत्र के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में धन्ना सार्थवाह के रूप में उत्पन्न हुआ। वह एक धनाढ्य व्यापारी था। दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था । एक बार अर्थोपार्जन हेतु वह विदेश जाने के लिए उद्यत हुआ। उसने यह घोषणा करवाई कि मेरे साथ जो भी चलेगा, मैं उसे सभी प्रकार की सुविधाएं दूंगा। यह घोषणा सुनकर सैंकड़ों व्यक्ति उसके साथ व्यापारार्थ चल दिये। ___ आचार्य धर्मघोष को भी बसंतपुर जाना था। निर्जन अटवी पार करने के लिये वे अपने शिष्य समुदाय के साथ धन्ना सार्थवाह के साथ हो गए। सेठ को जब ऐसे त्यागी मुनियों का परिचय मिला तो वह अत्यधिक प्रसन्न हुआ। मार्ग में सेठ ने आचार्य सहित पूरे शिष्य समुदाय की उपासना का अच्छा लाभ लिया, प्रासुक आहार, पानी आदि का दान दिया, जिससे वहां ऋषभदेव के जीव धन्ना सार्थवाह को प्रथम बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई।
धन्ना सार्थवाह के भव से देव व मनुष्य के सात भव करने के बाद नौवें जन्म में ऋषभ का जीव जीवांनद वैद्य के रूप में उत्पन्न हुआ । उसके चार अभिन्न मित्र थे-राजपुत्र, श्रेष्ठीपुत्र, मंत्री पुत्र, सार्थवाह पुत्र । इन पांचों ने एक कोढ़ जैसी भयंकर व्याधि से ग्रस्त एक मुनि की परिचर्या की। उनकी प्ररेणा पाकर वे श्रावक बने । जीवन पर्यंत श्रावक धर्म का पालन कर पांचों बारहवें देवलोक में देव बने।
ग्यारहवें भव में ऋषभ का जीव महाविदेह की पुष्कलावती विजय में राजकुमार