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२२/तीर्थकर चरित्र
हमें वृक्षों से बारह ही महीने फल मिला करते थे, अब उनमें परिवर्तन आ रहा है। समय के साथ वृक्षों ने भी फल देना बंद कर दिया है। क्या हम फलों के अभाव में भूखे रहेंगे ? नहीं, कभी नहीं। हमें भरपेट भोजन मिलेगा, खूब अच्छा भोजन मिलेगा। शर्त एक ही है कि अब हमें श्रम करना होगा, खेतों में अनाज बोना होगा, हर चीज उत्पन्न करनी होगी। अतः सब श्रम करो, सुख से जीओ।'
ऋषभ के इस आह्वान से हजारों-हजारों नौजवान खड़े होकर श्रम करने के लिए संकल्पबद्ध हो गये । सर्वत्र ऐसा वातावरण बन गया कि श्रम ही सुख का रास्ता है। श्रम के बिना जीने का समय बीत गया। अब उस पुरानी लकीर को पकड़े रखना नासमझी है। सभी के मुंह पर एक ही नारा गूंजने लगा- 'श्रम करो, सुख से जीओ।
ऋषभ ने कृषि के साथ-साथ अन्य सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के अन्य उपाय भी सिखाये। प्रत्येक कार्य की विधि उन्हें स्वयं ही सिखानी पड़ी थी। छींकी लगाओ
लोगों का बौद्धिक विकास नहीं के बराबर था। जितना बताया जाता था वे उतना ही समझते थे। आस-पास की बात उनके चिन्तन से बाहर थी। खेती पकने के बाद उसे काटकर अनाज निकालने की विधि स्वयं ऋषभ ने उन्हें बतलाई। लोग अनाज निकालने लगे। अनाज पर बैलों को घुमा-घुमा कर अनाज और भूसे को अलग-अलग करते, पर बैलों को भूख लगने पर वे उसी अनाज को खाने लगे। लोग घबराए और सोचने लगे कि ये अनाज खा जाएंगे तो हम क्या खाएंगे ? शाम को ऋषभ के पास आए। वे ऋषभ को 'बाबा' के नाम से पुकारते थे। कहने लगे- बाबा! अनाज तो बैल खा जाएंगे, फिर हमारे लिए क्या बचेगा ? बाबा ने घास की रस्सियों की छींकी बनाकर कहा- ऐसी छींकी लगा दो, फिर नहीं खाएंगे।
दूसरे दिन सभी लोगों ने छींकी लगा दी। बैलों के मुंह छींकी से बन्द हो गए। दिन-भर कुछ भी नहीं खा सके। किसान खुश थे। आज एक दाना भी अनाज फालतू नहीं गया। शाम को उन बैलों के आगे चारा आदि रख दिया, फिर भी उन्होंने नहीं खाया। अब क्या होगा? सब बाबा के पास पहुंचे, अपनी चिन्ता प्रगट करते हुए बोले- 'बाबा! बैल तो मर जाएंगे, उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया है।' बाबा ने पूछा-अरे ! छींकी तो तुमने खोल दी होगी? सबने कहा- खोलने का आपने कब कहा था ? बाबा ने कहा-जाओ, जल्दी खोलो। लोगों ने छींकी खोली, तब जाकर बैलों की जान बची। अग्नि की उत्पत्ति ____एक दिन कुछ लोग उद्भ्रांत होकर भागे-भागे ऋषभ के पास आए। अपने हाथ दिखाते हुए बोले- ये फफोले हो गए, अब क्या करें ? बाबा ने पूछा- यह