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१८/तीर्थंकर चरित्र
वही 'ऋषभ' हो गया। वैसे कल्पसूत्र की टीका में उनके पांच गुण निष्पन्न नाम बतलाए है- १ वृषभ, २ प्रथम राजा, ३ प्रथम भिक्षाचर, ४ प्रथम जिन, ५ प्रथम तीर्थंकर- इनके अतिरिक्त आदिनाथ, आदिम बाबा नाम भी ग्रन्थों में आए हैं। वंश-उत्पत्ति
भगवान् ऋषभ के समय कोई वंश (जाति) नहीं था। ऋषभ कुमार जब एक वर्ष के हुए, तब एक दिन अपने पिता की गोद में बाल क्रीड़ा कर रहे थे। इतने में इन्द्र एक थाल में विभिन्न खाद्य वस्तुएं आदि सजाकर बालक ऋषभ के समक्ष उपस्थित हुए। नाभि कुलकर ने ढ़ेर सारी वस्तुएं देखकर अपने पुत्र से कहा'जो कुछ खाना हो उसे हाथ से उठाओ।' ऋषभ कुमार ने सर्वप्रथम गन्ने का टुकड़ा उठाकर चूसने का यत्न किया।
बालक ऋषभ के इस प्रयत्न को ध्यान में रखकर इन्द्र ने घोषणा की- 'बालक ऋषभ कुमार को इक्षु प्रिय है, अतः आगे इस वंश का नाम इक्ष्वाकु वंश होगा।' इक्ष्वाकु वंश की स्थापना के साथ ही वंश परम्परा स्थापित हुई। विवाह
ऋषभ ने जब तारुण्य में प्रवेश किया तो उनका विवाह दो लड़कियों के साथ कर दिया गया। एक लड़की सहजन्मा थी, दूसरी अनाथ थी।
शादी का यह क्रम लोगों के लिए अजीब था। लोग शादी से अपरिचित थे। उससे पहले साथ में जन्मे भाई-बहिन ही आगे चलकर पति-पत्नी बन जाते थे। शादी नाम की कोई रस्म नहीं होती थी। दूसरों के प्रति विकार उत्पन्न होना जघन्य कार्य माना जाता था। उस समय साथ में जन्मे हुए परस्पर एक दूसरे पर अधिकार समझते थे। यह पहला प्रसंग था कि जब किसी ने अपने साथ जन्म न लेने वाली लड़की को पत्नी बनाया और इस रूप में शादी की। धीरे-धीरे लोगों के दिमाग में शादी की उपयोगिता समझ में आने लगी।
ऋषभ की दो पत्नियों में एक उनके साथ जन्मी हुई सुनंदा थी। दूसरी लड़की के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। माता-पिता के मरने से तो उस समय कोई फर्क नहीं पड़ता था। संतानोत्पत्ति यौगलिक काल में जीवन के अन्त में ही होती थी। कुछ समय तक संतान का लालन-पालन करने के बाद माता-पिता जल्दी ही मर जाते थे। पीछे से वे भाई-बहिन खान-पान की व्यवस्था बिना किसी कठिनाई के स्वयं कर लेते थे, किन्तु इस लड़की का तो जीवन-साथी लड़का भी मर गया था। यौगलिक जगत् में संभवतः यह पहली घटना थी। किन्तु सामूहिक जीवन के अभाव में इस घटना की सबको जानकारी भी नहीं हुई। आस-पास के कुछ लोगों को जब इसका पता लगा तो उन्हें इसका बड़ा आश्चर्य हुआ। लड़की बेचारी वहीं फल-फूल खाकर दिन बिताने लगी।