________________
२० ]
सुखबोधायां तत्वार्थवृत्तौ
द्रव्यभावविषयत्वाद्वेधा । देशतः सञ्चितकर्माभावो निर्जरा । सापि पूर्ववद्रव्यभावरूपा सोपाया निरुपाया च सम्भवति । ध्यानादितपोभिः कर्मविपाकहेतुका सोपाया । स्वकालेनैव कर्माभावविषया निरुपाया निर्जरा । संवरो निर्जराहेतुकः । सकलद्रव्यभावकर्माभावो मोक्षो जीवस्येति सम्बन्धः । कथंचित्तदव्यतिरेकात् सामानाधिकरण्येन जीवादय एव तत्त्वमिति व्यपदिश्यन्ते । तेषामेव सम्यग्दर्शनादिजीवादीनां संव्यवहारविप्रतिपत्तिनिराकरणार्थं नामादिनिक्षेपविधिमाह -
1
नामस्थापनाद्रव्य भावतस्तन्न घासः ।। ५ ।।
द्रव्यगुणक्रिया नपेक्ष्य संज्ञाकरणं नाम । तदनेकविधम् । काष्ठलेप्यचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमित्येकत्वाभिसन्धानेन कृतनामकस्य वस्तुनः प्रतिकृतिः स्थाप्यमाना स्थापना । सा सद्भावा
सविपाक निर्जरा कहते हैं जो संपूर्ण संसारी जीवों के होती है ] निर्जरा का कारण संवर है । संपूर्ण द्रव्य कर्म और भाव कर्मों का अभाव होना मोक्ष है वह जीव के होता है इस तरह संबंध करना चाहिये । आस्रव आदिक कथंचित् उससे अभिन्न हैं सामानाधिकरण्य से जीवादि ही तत्त्व हैं ऐसा कहा जाता है ।
विशेषार्थ - सामानाधिकरण्य या समानाधिकरण के दो भेद हैं, शाब्दिक समानाधिकरण और आर्थिक समानाधिकरण । इनमें विशेष्य विशेषण रूप दो शब्दों का समान विभक्ति रूप होना शाब्दिक समानाधिकरण है, जैसे "नीलं च तत् उत्पलं च नीलोत्पलं” । यहां पर नील और उत्पल शब्द की समान विभक्ति है । जीव ही तत्त्व है, अजीव रूप तत्त्व है इत्यादि में जीव और तत्त्व में कथंचित् अभेद होने से अर्थ समानता रूप आर्थिक समानाधिकरण है ।
उन्हीं सम्यग्दर्शन आदि तीन और जीव आदि सात तत्त्वों के संव्यवहार की विप्रतिपत्ति दूर करने के लिये नामादि निक्षेपों की विधि कहते हैं—
सूत्रार्थ - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों द्वारा उन सभ्यग्दर्शन आदि का एवं जीवादि तत्त्वों का न्यास [ प्रतिपादन ] होता है ।
नाम निक्षेप - जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया की अपेक्षा न करके संज्ञा रखना नाम निक्षेप है वह अनेक प्रकार का है । काष्ठ कर्म लेप्य कर्म चित्र कर्म आदि में तथा अक्ष - सतरंज के गोटे आदि में "वह यह है" इसप्रकार एकत्व के सन्धान द्वारा