________________
२२६ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
न्द्रियावधिविषयश्च ते तथोक्ताः । तैस्ततः । श्राद्यादिभ्यस्तस् वक्तव्य इति तस् । एतैः स्थित्यादिभिः प्रतिप्रस्तारमुपर्युपरि वैमानिका भवन्तः प्रकृष्टत्वादधिका बोद्धव्याः । गत्यादिभिरपि तेषामधिकत्व - प्रसङ्ग े तन्निवारणार्थमाह
गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २१ ॥
देशान्तरप्राप्तिहेतुः कायपरिस्पन्दो गतिः । शरीरं वैक्रियिकमुक्तम् । लोभकषायोदयाद्विषयेषु प्रसङ्गः परिग्रहः । मानकषायापादितोऽहङ्कारोऽभिमानः । गतिश्च शरीरं च परिग्रहश्चाभिमानश्च गतिशरीरपरिग्रहाभिमानास्तैस्ततः पूर्ववत्तस् । एतैर्गत्यादिभिरुपर्युपरि वैमानिका अप्रकृष्टत्वाद्धीना वेदितव्याः । तत्र देशान्तरविषय क्रीडारतिप्रकर्षाभावादुपर्युपरि देवा गतिहीनाः । शरीरं सौधर्मेशानीयदेवानां सप्तहस्तप्रमारणम् । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोर्देवानां षत्निमात्रम् । ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठेषु देवानां पञ्चरत्निप्रमाणम् । शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेषु देवानां चतुरत्निप्रमारणम् ।
इस सूत्र से तस् प्रत्यय हुआ है । इन स्थिति, प्रभाव आदि से प्रत्येक पटल में ऊपर ऊपर के वैमानिक देव प्रकृष्ट होने से अधिक हैं ऐसा जानना चाहिये ।
गति आदि की अपेक्षा भी उनके अधिक होने का प्रसंग प्राप्त होने पर उसका निवारण करते हुए सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ - गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान से वे वैमानिक देव आगे आगे ही होते हैं ।
देशान्तर की प्राप्ति में हेतुभूत काय का परिष्पंद गति है । शरीर वैक्रियिक होता है जिसका स्वरूप पहले कह आये हैं । लोभ कषाय के उदय से विषयों में आसक्ति होना परिग्रह है । मान कषाय के उदय से जो अहंकार होता है वह अभिमान है । गति आदि शब्दों का द्वन्द्व समास करके पहले के समान तस् प्रत्यय लाना । इन गति आदि से ऊपर ऊपर के वैमानिक देव अप्रकृष्ट होने से हीन जानने चाहिये । देश देशान्तर में जाकर क्रीड़ा करने की रति कम होने के कारण ऊपर ऊपर के देव गमन कम करते हैं [ अथवा गमन नहीं करते हैं ] अतः गतिहीन है । शरीर को बतलाते हैं— सौधर्म ऐशान स्वर्ग के देवों का शरीर सात हाथ ऊंचा है । सानत्कुमार माहेन्द्र के देवों का शरीर छह हाथ, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव कापिष्ठ स्वर्गों में देवों के शरीर पांच हाथ, शुक्र महाशुक्र शतार और सहस्रार में देवों के देह की ऊंचाई चार हाथ,