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अष्टमोऽध्यायः
[ ४६५ त्वेनोत्तरप्रकृतिबन्धस्य ग्रहणं द्वितीयशब्दः स्यादिति चेत् परिशेषादिति ब्रमः । प्राद्यो मूलप्रकृतिबन्धः पूर्व व्याख्यातस्ततः परिशेषादुत्तरप्रकृतिबन्ध एवायं संप्रतीयत इत्यदोषः । भेदशब्दश्च प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः-पञ्चभेदो नवभेद इत्यादिः । क्रमस्यानतिक्रमेण यथाक्रमं यथानुपूर्वमित्यर्थः । ततो ज्ञानावरणं पञ्चभेदम् । दर्शनावरणं नवभेदम् । वेदनीयं द्विभेदम् । मोहनीयमष्टाविंशतिभेदम् । आयुश्चतुर्भेदम् । नाम द्विचत्वारिंशद्भ दम् । गोत्रं द्विभेदम् । अन्तराय: पञ्चभेद इति यथाक्रम सम्बन्धोऽवसेयः । यद्येवं केषां ज्ञानानामावरणं पञ्चभेद इत्याह
मतिश्रुताऽवधिमनःपर्ययकेवलानाम् ॥ ६ ॥ मतिश्च श्रुतं चावधिश्च मनःपर्ययश्च केवलं च मतिश्रुताऽवधिमनःपर्ययकेवलानि व्याख्यातलक्षणानि । तेषां मतिश्रुताऽवधिमनःपर्ययकेवलानां ज्ञानानामावार्याणां पञ्चविधत्वादावरणमपि पञ्चविधं प्रत्येतव्यं । ननु लघ्वर्थ मत्यादीनामिति निर्देशो युक्त इति चेन्न-पञ्चानामपि प्रत्येकमावरणः
उत्तर-परिशेष न्याय से द्वितीय का ग्रहण स्वतः होता है, पहला मूल प्रकृति बंध पूर्व सूत्र में कहा ही है उससे परिशेष से यह उत्तर प्रकृति बन्ध ही है ऐसा प्रतीत होने से कोई दोष नहीं आता । भेद शब्द प्रत्येक के साथ जोड़ना, पंच भेद, नौ भेद इत्यादि । क्रम का उल्लंघन न करके यथाक्रम यथानुपूर्वी ऐसा यथाक्रम शब्द का अर्थ है । उससे फलित होता है कि ज्ञानावरण पांच भेद वाला है, दर्शनावरण नौ भेद वाला, वेदनीय दो भेद वाला, मोहनीय अट्ठावीस भेद वाला, आयु चार भेद वाला, नाम बियालीस भेद वाला, गोत्र दो भेद वाला और अन्तराय पांच भेद वाला है ।
प्रश्न-यदि ऐसी बात है तो किन ज्ञानों के आवरण पांच भेद वाले हैं ? उत्तर-इसीका सूत्र द्वारा वर्णन करते हैं
सत्रार्थ-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल । इन पांच ज्ञानों के आवरण करने वाले पांच ज्ञानावरण कर्म हैं ।
मति इत्यादि पदों में द्वन्द्व समास है । इन पांचों ज्ञानों के लक्षण पहले बता चके हैं । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पांच ज्ञान आवार्य हैं अतः आवरण भी पांच हैं ऐसा जानना चाहिए ।
शंका-सूत्र लघु बनाने के लिये 'मत्यादीनाम्' ऐसा सूत्र करना चाहिए ?