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अष्टमोऽध्यायः
[ ४९७ प्रकृष्टोऽनुभवः । शुभप्रकृतीनां तु निकृष्टो भवति । स एवं प्रत्ययवशादुपात्तोऽनुभवो द्विधा प्रवर्ततेस्वमुखेन परमुखेन च । सर्वासां मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनैवानुभवः । उत्तरप्रकृतीनां तु तुल्यजातीयानां परमुखेनापि भवत्यायुर्दर्शनचारित्रमोहवर्जानाम् । न हि नारकायुमुखेन तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्वा विपच्यते। नापि दर्शनमोहश्चारित्रमुखेन चारित्रमोहो वा दर्शनमुखेन विपच्यते । कथमयमनुभवः प्रतीयत इत्याह
स यथानाम ॥ २२ ॥ स इत्यनेनानुभव: प्रतिनिर्दिश्यते । नामशब्देन ज्ञानावरणं मतिज्ञानावरणमित्यादि सर्वकर्म'प्रकृतीनां सामान्यविशेषसंज्ञाःप्रोच्यन्ते । नाम्नामनतिक्रमेण यथानाम । ज्ञानावरणस्य फलं ज्ञानाभावः। दर्शनावरणस्य फलं दर्शनशक्तय परोध इत्येवमाद्यन्वर्थसंज्ञानिर्देशात्सर्वासां कर्मप्रकृतीनां सविकल्पानामनुभवः संप्रतीयत इति तात्पर्यार्थः । प्राह यदि विपाकोऽनुभवः प्रतिज्ञायते तदा तत्कर्मानुभूतं सत्किमा
परिणामों के प्रकर्ष होने पर अशुभ प्रकृतियों में उत्कृष्ट अनुभव पड़ता है, और शुभ प्रकृतियों में हीन पड़ता है। इस तरह कारणवश प्राप्त हुआ जो अनुभव है वह दो प्रकार से फलता है-स्वमुख से और परमुख से । सभी मूल प्रकृतियों का अनुभव नियम से स्वमुख से प्राप्त होता है। और उत्तर प्रकृतियों में जो समान जातीय प्रकृतियां हैं उनका परमुख से भी फल प्राप्त होता है या अनुभव प्राप्त होता है। इनमें चार आयु
और मोहनीय कर्मको छोड़ देना, क्योंकि नारक आयुरूप से मनुष्य आयु या तिथंच आयु फल नहीं देती है, वह तो अपने रूप से ही फल देती है, ऐसे सर्व आयु के विषय में समझना । इसी तरह दर्शनमोहकर्म चारित्रमोहरूप से या चारित्रमोह दर्शनमोहरूप से फल नहीं देता है।
प्रश्न-यह अनुभव किस प्रकार प्रतीत होता है ? उत्तर- इसको सूत्र द्वारा कहते हैं
सूत्रार्थ-वह अनुभव यथानामानुसार होता है । स शब्द से अनुभव का निर्देश किया है। नाम शब्द से ज्ञानावरण, मति ज्ञानावरण इत्यादि सर्व कर्मों की प्रकृतियों की सामान्य विशेष संज्ञा कही गयी है । नामका अतिक्रमण न करके जो हो वह यथानाम है । ज्ञानका अभाव होना ज्ञानावरण कर्म का फल है, दर्शनावरण का फल दर्शन शक्ति को रोकना है। इस तरह सर्व ही कर्म प्रकृतियों के एवं उनके भेदों के अन्वर्थ नाम हैं अतः नाम से उनका अनुभव प्रतीति में आता है ।