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नवमोऽध्यायः
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योगः समुच्छिन्न क्रियानिवृत्तिध्यानस्वभावो भवति । ततः सम्पूर्णक्षायिकदर्शनज्ञानचारित्रः कृतकृत्यो विराजते । तदेवमाभ्यन्तरस्य तपसः परमसंवरकारणत्वात्परम निर्जरा हेतुत्वाच्च तपसा संवरो निर्जरा चेति सम्यक्सूत्रितम् । संप्रति किमेते सम्यग्दृष्टघादयः समनिर्जराः किं वाऽन्यथेति शङ्कामपनुदन्नाहसम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्तवियोजक दर्शन मोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसङ्खयं यगुणनिर्जराः ॥४५॥
एते दश सम्यग्दृष्टयादयः क्रमशोऽसङ्ख्ये यगुणनिर्जराः । तद्यथा - भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तकः पूर्वोक्तकाललब्ध्या दिसहायः परिणामविशुद्धया वर्धमानः क्रमेण पूर्व कर रणादिसोपानपंक्तया उत्प्लवमानो बहुत रकर्मनिर्जरो भवति । स पुनः प्रथमसम्यक्त्व प्राप्तिनिमित्तसन्निधाने सति सम्यग्दृष्टिर्भवन्नसङ्ख्य यगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनश्चारित्रमोहविकल्पाऽप्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमकारण
आत्म प्रदेशों का परिस्पन्द जिनके और उससे समाप्त हो गया है अशेष योग जिनके ऐसे अयोगी जिन समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति नामके चौथे शुक्लध्यान में स्थित होते हैं। उससे पूर्ण हो गये हैं क्षायिकज्ञान दर्शनचारित्र जिनके ऐसे वे कृतकृत्य होकर विराजते हैं ।
इस प्रकार अभ्यन्तर तप ( ध्यान ) परम संवर का कारण होने से तथा परम निर्जरा का कारण होने से 'तपसा निर्जरा च' महान् आचार्य उमास्वामी का यह सूत्र भली प्रकार से सिद्ध होता है ( सिद्ध किया है)
अब सम्यग्दृष्टि श्रावक विरत आदि भव्यात्मा समान निर्जरा वाले होते हैं अथवा हीनाधिक निर्जरा वाले होते हैं ऐसी शंका को दूर करते हुए सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ - सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धी कषाय का वियोजक, दर्शन मोह का क्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिनेन्द्र इनकी क्रमश: असंख्यात गुण श्र ेणि, असंख्यात गुणश्रेणि निर्जरा होती है ।
ये दस सम्यग्दृष्टि आदि क्रमशः असंख्यात गुणश्र ेणि निर्जरा वाले होते हैं । आगे इन्हीं का विवेचन करते हैं - कोई भव्य पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक जीव है पूर्वोक्त कादि लब्धियों का सहाय वाला होकर परिणामों की विशुद्धि से वर्धमान होता हुआ क्रम से अपूर्वकरण आदि सोपान पंक्ति से चढ़ता हुआ बहुत से कर्मों की निर्जरा करता है । वह पुनः प्रथम सम्यक्त्व प्राप्ति के निमित्त के सन्निधान में सम्यग्दृष्टि होकर