Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Bhaskarnandi, Jinmati Mata
Publisher: Panchulal Jain

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Page 591
________________ सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती परिणामप्राप्तिकाले विशुद्धिप्रकर्षयोगात् श्रावको भवति । ततोऽसङ्ख्य यगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनः प्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमकारणपरिणामविशुद्धियोगाद्विरतव्यपदेशभाक् ततो सङ्खये यगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनरनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभवियोजनपरो भवति । तदा परिणामविशुद्धिप्रकर्षयोगात्ततोऽसङ्ख्य यगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनदर्शनमोहप्रकृतित्रयतृणनिचयं निदिधक्षुः परिणामविशुध्यतिशययोगाद्दर्शनमोहक्षपकव्यपदेशभाक् पूर्वोक्तादसङ्खययगुणनिर्जरो भवति । एवं स क्षायिकसम्यग्दृष्टिभूत्वा श्रेण्यारोहणाभिमुखश्चारित्रमोहोपशमं प्रति व्याप्रियमाणो विशुद्धिप्रकर्षयोगादुपशमकव्यपदेशमनुभवन् पूर्वोक्तादसङ्खय यगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनरशेषचारित्रमोहोपशमनिमित्त सन्निधाने सति प्राप्तोपशान्तकषायव्यपदेशः पूर्वोक्तादसङ्खये यगुणनिर्जरो भवति । स एव पुनश्चारित्रमोहक्षपणं प्रत्यभिमुख: परिणामविशुद्धया वर्तमानः क्षपकव्यपदेशमनुभवन्पूर्वोक्तादसंखय यगुणनिर्जरो भवति । स यदा निःशेषचारित्रमोहक्षपणं प्रत्यभिमुख: परिणामविशुद्धया वर्तमानः क्षीणकषायव्यपदेश असंख्यात गुणी निर्जरा को करता है। वही पुनः चारित्रमोह के भेद स्वरूप अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम के कारणभूत परिणामों की प्राप्ति काल में विशुद्धिका प्रकर्ष होने से श्रावक बनता है तब उसके पहले से अधिक असंख्यात गुणी निर्जरा होती है । वही जीव पुनः प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम के कारणभूत परिणामों की विशद्धि होने पर विरत नामको पाते हुए पूर्व से अधिक असंख्यात गुणी निर्जरा वाला होता है । वही जीव जब अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया और लोभ इन चार प्रकृतियों का विसंयोजन करता है उस समय परिणामों की विशुद्धि का प्रकर्ष होने से उससे असंख्यात गुणी निर्जरा वाला होता है। वही फिर दर्शनमोह की तीन प्रकृतिरूपी घास के समूह को जलाने का इच्छुक होता हुआ परिणाम विशुद्धि के अतिशय से दर्शनमोह क्षपक इस नामको पाकर पहले से अधिक असंख्यात गुणी निर्जरा वाला होता है । इस प्रकार वह जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर श्रेणि आरोहण के सम्मुख होता है वहां चारित्रमोह के उपशमन के लिये प्रवृत्त हुआ विशुद्धि के प्रकर्ष के योग से उपशमक नाम वाला होकर पहले से अधिक असंख्यात गुणी निर्जरा वाला होता है। वही पुनः अशेष चारित्र मोह के उपशम के निमित्त के सन्निधान से उपशान्त कषाय नामको प्राप्त होता हआ पहले से अधिक असंख्यात गुणी निर्जरा वाला होता है। वही पुनः चारित्र मोह के क्षपणा के सम्मुख होता है और परिणाम विशुद्धि से बढ़ता हुआ क्षपक संज्ञा को पाकर पहले से अधिक असंख्यात गुणी निर्जरा वाला होता है । वही जब संपूर्ण चारित्र मोह का क्षपण कर परिणाम विशुद्धि से वर्तमान क्षीण कषाय संज्ञाको प्राप्त कर पहले

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