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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती - यतः संसारकारणादात्मनो गोपनं भवति सा गुप्तिः । प्राणिपीडापरिहारार्थ सम्यगयनं समितिः । इष्टे स्थाने धत्त इति धर्मः । शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। क्षुधादिजनितवेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थं परिषह्यत इति परीषहः । तस्य जयः परीषहजयः । चारित्रशब्द प्रादिसूत्रे व्याख्यातार्थः । गुप्त्यादयो वक्ष्यमाणलक्षणास्तेषां गुप्त्यादीनां संवरक्रियाया साधकतमत्वात्करणसाधनत्वम् । संवरोऽधिकृतोऽपि स इति तच्छब्देन परामृश्यते, गुप्त्यादिभिः साक्षात्सम्बन्धार्थः । किं प्रयोजनमिति चेदवधारणार्थमिति ब्रमः । स एष संवरो गुप्त्यादिभिरेव भवति नान्येनोपायेनेति । तेन तीर्थाभिषेकदीक्षा शीर्षोपहारदेवताराधनादयो निवतिता भवन्ति । रागद्वेषमोहोपात्तस्य कर्मणोऽन्यथा निवर्तयितुमशक्यत्वात् । संवरहेतुविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
संसार के कारणों से जिसके द्वारा आत्मा का गोपनरक्षण होता है वह गुप्ति है। प्राणियों के पीड़ा का परिहार करने हेतु भली प्रकार से गमन करना-प्रयत्न करना समिति है। जो इष्ट स्थान में धर देता है वह धर्म है। शरीरादि के स्वभावों का चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। क्षुधा आदि से उत्पन्न हुई वेदना को कर्मों की निर्जरा के लिये सहन करना परीषह है, परीषह का जय परीषह जय कहलाता है। चारित्र शब्द का पहले अध्याय के प्रथम सूत्र में व्याख्यान कर चुके हैं । गुप्ति आदि का लक्षण आगे कहने वाले हैं, संवररूप क्रिया के लिये ये गुप्ति आदिक साधकतम कारण होते हैं अतः सूत्र में इनका करण निर्देश (तृतीया विभक्ति) किया है। संवर का अधिकार है तो भी 'स' शब्द द्वारा उसका उल्लेख संवर का गुप्ति आदि के साथ साक्षात् सम्बन्ध बतलाने के लिये किया है।
प्रश्न-'स' ऐसा सूत्र में उल्लेख करने का क्या विशेष प्रयोजन है ? .. उत्तर-अवधारण का प्रयोजन है, अर्थात् गुप्ति के द्वारा ही संवर होता है, अन्य किसी उपायों से संवर नहीं होता ऐसा निश्चय कराने हेतु 'स' शब्द दिया है। इस तरह अवधारण करने से, अन्य परवादी जो तीर्थाभिषेक ( गंगादि में नहाना) दीक्षा, शीर्षोपहार ( तीर्थ में शिर मुण्डन करना या मस्तक काटकर देवी को भेंट चढ़ाना) देवता की आराधना आदि से कर्म नाश होना मानते हैं उनका खण्डन हो जाता है, क्योंकि राग, द्वेष और मोह द्वारा उपार्जित किये गये कर्म गुप्ति आदि को छोड़कर अन्य उपायों से नष्ट नहीं हो सकते हैं।
आगे संवर का विशेष हेतु बताते हैं