Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Bhaskarnandi, Jinmati Mata
Publisher: Panchulal Jain

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Page 579
________________ ५३४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती मिदं सर्वथैकस्वभावस्यात्मनो युगपत्स्वभावद्वयाऽयोगात् । तस्य स्वभावनानात्वे जैनमतसिद्धिः-स्थिर चिन्तात्मकस्यात्मनो ध्यानत्वेनेष्टत्वात् । ततोऽन्यत्रोपचारेण ध्यानव्यवहारात् । तदुपचारकारणस्याप्य भाचे मुक्तत्व सिद्धेः । एकाग्रेण एकमुखेन चिन्तानियम एकाग्रचिन्तानिरोध इति वा प्रतिपादयितव्यं. अक्षसूत्रादिपरिगणनेन विविधमुखेन विन्तायाः सर्वथा ध्याननिवृत्त्यर्थम् । क्षणिकायेकान्तवादिनां ध्यानाभावो ध्यातृध्येययोरभावे ध्यानाऽनुपपत्तेः। ध्यानाभावश्च सर्वथार्थक्रियाविरोधाज्जात्यन्तरस्यैव तथाभावसिद्धेः । केषांचिदनेकसंवत्सर कालमपि ध्यानमिति मतं तदप्यान्तर्मुहूर्तादिति वचनान्निराकृतम् । ___समाधान-यह कथन ठीक नहीं है, सर्वथा एक स्वभाव वाले आत्मा के एक साथ दो स्वभाव (ध्यान स्वभाव और मोक्ष स्वभाव) स्वीकार नहीं कर सकते । यदि नाना स्वभाव स्वीकार करेंगे तो जैन मत की सिद्धि होगी अर्थात् आप सांख्यादि का जैन मत में प्रवेश होगा ? हम जैन स्थिर चिन्ता स्वरूप आत्मा के ध्यान स्वीकार करते हैं, जिसके चिन्ता (मन) नहीं है उस आत्मा के उपचार मात्र से ध्यान होना मानते हैं अर्थात् योग एवं शरीर जब तक है तब तक ध्यान माना है, उसमें भी चिन्ता युक्त (मनयुक्त) आत्मा के तो वास्तविक ध्यान माना है और उससे रहित केवली जिनके उपचार से ध्यान माना है, वहां उपचार का कारण कर्मों का नाश होना रूप कार्य को देखकर कारणरूप ध्यान मान लेते हैं। मुक्त अवस्था में कर्मों का नाश हो चुकता है अतः वहां उपचार से भी ध्यान नहीं माना जाता । 0 . अथवा 'एकाग्रेण-एक मुखेन चिन्ता नियम' 'एकाग्र चिन्ता निरोधः' एकाग्र से . अर्थात् एक मुख से चिन्ता का नियम होना एकाग्र चिन्ता निरोध है ऐसा 'एकाग्र चिन्ता निरोधो' पदका अर्थ करना चाहिए, उससे जप माला आदि से गणना करना रूप चित्ता का विधिमुख से होना ध्यान नहीं है ऐसा सिद्ध होता है। अर्थात् गणना करने में मन लगा है तो भी वह ध्यान नहीं है ऐसा समझना चाहिए । सर्वथा क्षणिक ऑदि एकान्त मतको मानने वाले परवादियों के यहां पर ध्यान सिद्ध नहीं होता, क्योंकि ध्याता पुरुष और ध्येय पदार्थ सर्वथा क्षणिक आदि रूप मानने से वे अभाव-शून्यरूप पड़ते हैं और उनके नहीं होने से ध्यान भी नहीं बनता। सर्वथा क्षणिक आदि रूप ‘पदार्थों में अर्थ क्रिया सम्भव नहीं है। अर्थ क्रिया तो क्षणिक और नित्य से जात्यन्तर जो कथञ्चित अनित्य नित्य स्वरूप वस्तु है उसमें सिद्ध होती है, उस अर्थक्रिया युक्त ..वस्तु के. सिद्ध होने पर ही ध्याता, ध्येय और ध्यान की प्रसिद्धि होती है । .. . . . .

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