Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Bhaskarnandi, Jinmati Mata
Publisher: Panchulal Jain

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Page 582
________________ नवमोऽध्यायः [ ५३७ असद्वद्योदयाद्वेद्यत इति वेदना पीडा प्रकरणादिह ग्राह्या । तस्याश्च स्मृतिसमन्वाहारो 'बाधते मामियं धिक्' इति पुनश्चिन्तनं यत्तत्तृतीयमात विज्ञेयम् । चतुर्थमाह निदानं च ॥ ३३ ॥ अनागतभोगाकांक्षण निदानम् । तच्चात निश्चेयम् । विपरीतं मनोज्ञस्येत्यनेनैव गतमेतदिति चेत्तन्न-अप्राप्तपूर्वविषयत्वान्निदानस्य । प्राप्तवियोगे संप्रयोगगोचरत्वात्तस्य स्मृतिसमन्वाहारः । कथं तयानमिति चेदेकाग्रत्वेन चिन्तान्तरनिरोधरूपत्वसद्भावात् । तहि सर्वचिन्ताप्रबन्धानां ध्यानत्वप्राप्ति असातावेदनीय कर्म के निमित्त से जो वेदा जाता है वह वेदना है, उस पीड़ा को यहां प्रकरण से ग्रहण करना चाहिये । उस वेदना के होने पर मन में स्मृति का समन्वाहार होना कि यह बड़ी भारी पीड़ा हो रही है, मेरे को बाधा दे रही है, हाय हाय ! धिक्कार है ! इत्यादि रूप से बार बार विचार करना तीसरा पीड़ा चिन्तन नामका आध्यान है। चौथे आतध्यान को कहते हैंसूत्रार्थ-निदान करना चौथा आर्तध्यान है। आगामी भोगों की वांछा होना निदान है । वह आर्त्तध्यान है। प्रश्न-निदान नामका यह आतध्यान 'विपरीतं मनोज्ञस्य' इस सूत्रार्थ में ही गभित हो जाता है, अर्थात् इष्ट पदार्थ के लिये चिन्तन करना दूसरा आत ध्यान बताया है उसी में निदान गभित हो जाता है, क्योंकि इसमें भी इष्ट की अभिलाषा है ? उत्तर-यह कथन ठीक नहीं है । जो विषय पहले प्राप्त नहीं हुआ है उस भोग विषय के लिए निदान होता है, और जो प्राप्त होकर छूट गया है-दूर हो गया है उसकी पुनः प्राप्ति के लिये मनमें बार बार विचार आना इष्ट वियोग नामका दूसरा आर्त्तध्यान है, इस तरह दोनों में अन्तर पाया जाता है। प्रश्न-इन इष्ट पदार्थ के चिन्तनादि को ध्यान कैसे कह सकते हैं ? उत्तर-एक पदार्थ में मनका रोध होने से अन्यत्र चिन्ता नहीं जाती अतः इष्ट वियोग आदि से होने वाले चिंतन को ध्यान कहते हैं।

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