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नवमोऽध्यायः
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किमर्थमिदमुच्यत इति चेदत्रोच्यते- प्राद्यं तावत्प्रवृत्तिनिग्रहार्थम् । तत्राऽसमर्थानां प्रवृत्त्युपायप्रदर्शनार्थं द्वितीयम् । इदं पुनर्दशविधधर्माख्यानं प्रवर्तमानस्य प्रमादपरिहारार्थं वेदितव्यम् । शरीरस्थितिहेतु मार्गणार्थं परकुलान्युपव्रजतो भिक्षोदुर्जनाक्रोशप्रहसनावज्ञाताडनशरीरव्यापादनादीनां सन्निधानेऽपि कालुष्यानुत्पत्तिः क्षमा । जात्यादिकृतमदावेश्वशादभिमानाभावो मार्दवं माननिर्हरणम् । योगस्यावक्रतार्जवम् । प्रकर्षप्राप्ता लोभनिवृत्तिः शौचम् । सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत्यमित्युच्यते । श्रथैतद्भाषासमितावन्तर्भवतीति चेन्नैष दोषः समितौ प्रवर्तमानो मुनिः साघुष्वसाधुषु च भाषाव्यवहारं कुर्वन् हितं मितं च ब्रूयादन्यथा रागानर्थदण्डदोषः स्यादिति वाक्स मित्यर्थः । इह पुनः सन्तः प्रव्रजितास्तद्भक्ता वा तेषु साधुषु सत्सु ज्ञानचारित्रशिक्षरणादिषु बह्वपि कर्तव्यमित्यनुज्ञायते ।
समाधान — बतलाते हैं- देखिये !
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पहला संवर का भेद जो गुप्ति है वह प्रवृत्ति को दूर करने के लिए है, उस गुप्ति पालन में जो साधु असमर्थ है उसको प्रवृत्ति का उपाय दिखाने के लिये दूसरा पद अर्थात् समिति का कथन किया गया है और यह तीसरा पद जो दस प्रकार का धर्म स्वरूप है, वह जो भी समितिरूप प्रवृत्ति करना
स्थान पर धर्म का जाते हुए साधुजनों मारते हैं, शरीर का संताप कलुषता नहीं
उसमें प्रमाद नहीं होने देना, इस बात को समझाने हेतु इस तीसरे वर्णन किया है । शरीर की स्थिति के लिये परकुल में परघर में को दुर्जन लोग गाली देते हैं, हंसी उड़ाते हैं, अवज्ञा करते हैं, व्यापादन करते हैं, इत्यादि किये जाने पर भी साधु के मनमें क्षोभ होना क्षमा कहलाती है । जाति, कुल इत्यादि के निमित्त से जो उसको नहीं होने देना मार्दव है, अर्थात् मान का त्याग करना मार्दव योग आदि में कुटिलता नहीं होना आर्जव है, प्रकर्ष लोभ का त्याग प्रशस्तजनों में साधु वचन - श्रेष्ठ वचन कहना सत्य है ।
शंका- इस सत्य धर्म का भाषा समिति में अन्तर्भाव होता है ?
मद - गर्व होता हैं। धर्म है। मनो करना शौच हैं ।
समाधान- - ऐसा नहीं कहना, भाषा आदि समिति में प्रवृत्ति करने वाला यति साधुजन और असाधुजन इन दोनों में भाषा व्यवहार करता है अर्थात् बोलता है, किंतु हित और मित बोलता है, यदि अधिक बोलता है तो राग आदि रूप अनर्थ दण्ड का दोष आता है, इस तरह हित मित बोलने वाले साधु के भाषा समिति होती है । तथा इस सत्य धर्म का पालन करने वाला मुनि सन्त पुरुषों के साथ दीक्षित साधुजनों के साथ एवं साधुजनों के जो भक्त पुरुष हैं उनके साथ दर्शन, ज्ञान और चारित्र का