Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Bhaskarnandi, Jinmati Mata
Publisher: Panchulal Jain

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Page 575
________________ ५३० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगरणकुलसंघसाघुमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ वैयापृत्यमेतदनुग्रहाय व्यापृतत्वमिति प्रत्येकं घटनाद्दशभेदम् । तत्राचरन्ति तस्माद्ब्रतानीत्याचार्यः। उपेत्य तस्मादधीयत इत्युपाध्यायः । महोपवासाद्यनुष्ठायी तपस्वी। शिक्षाशीलः शैक्षः । रोगादिक्लिन्नशरीरो ग्लानः। स्थविरसन्ततिस्थो गणः। दीक्षकाचार्यस्य शिष्यसंस्त्यायः कुलम् । ऋषिमुनियत्यनगारचातुर्वर्णश्रमणनिवहः संघः । साधुश्चिरप्रव्रजितः । शिष्टसम्मतो विद्वत्ववक्तृत्वमहाकुलत्वादिभिर्मनोज्ञः प्रत्येतव्योऽसंयतसम्यग्दृष्टिा । एषां व्याधिपरीषहमिथ्यात्वाद्युपनिपाते निरवद्यविधिना तत्प्रतीकारो वैयापृत्यम् । बाह्यद्रव्यासम्भवे स्वकायेन वाचा तदानुकूल्यानुष्ठानं वा । स्वाध्यायविकल्पप्रतिपादनार्थमाह सूत्रार्थ-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दस प्रकार के साधुजनों की वैयापृत्य करने की अपेक्षा वैयापृत्य भी दस प्रकार का हो जाता है। वैयापृत्य का प्रकरण है, अनुग्रह के लिये लगे रहना वैयापृत्य कहलाता है इस शब्द को प्रत्येक के साथ लगाने से उसके दश भेद हो जाते हैं । 'आचरन्ति व्रतानि तस्मात् इति आचार्यः' जिससे व्रत आचरित होते हैं वह आचार्य हैं। 'उपेत्य तस्मात अधीयते इति उपाध्यायः' जिसके पास जाकर पढ़ा जाता है वह उपाध्याय है । महोपवासों को करने वाला तपस्वी है। शिक्षा शीलको शैक्ष कहते हैं। रोगादि से खेदित शरीरवाला ग्लान है । स्थविरों की सन्तति में स्थित गण कहलाता है। दीक्षा देने वाले आचार्य के शिष्य समुदाय को कुल कहते हैं। ऋषि, मुनि, यति और अनगार स्वरूप चातुर्वर्ण श्रमण समूह को संघ कहते हैं । चिरकाल से दीक्षित को साधु कहते हैं। जो शिष्ट पुरुषों में मान्य है, विद्वान है, वक्तृत्व गुणधारी है, महाकुलीन है, इत्यादि गुणों से मण्डित साधु को मनोज्ञ कहते हैं, अथवा इन गुणों से युक्त असंयत सम्यग्दृष्टि को मनोज्ञ कहते हैं। इन पुरुषों पर व्याधि आ पड़ी है अथवा किसी कारणवश इनके मिथ्यात्व भाव हो गये हैं तो निर्दोष विधि से उक्त बाधाओं को दूर करना वैयापत्य है अथवा रोग प्रतिकार के बाह्य साधन नहीं हैं तो अपने शरीर से तथा मधुर वचन से उनके अनुकूल अनुष्ठान करना वैयापृत्य है । स्वाध्याय के भेद बतलाते हैं

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