Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Bhaskarnandi, Jinmati Mata
Publisher: Panchulal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 556
________________ नवमोऽध्यायः [ ५११ तपसा निर्जरा च ॥३॥ तपो धर्मान्तर्भूतमपि पृथगुच्यते उभयसाधनत्वख्यापनार्थं संवरं प्रति प्राधान्यप्रतिपादनार्थ च । ननु च तपोभ्युदयाङ्गमिष्टं देवेन्द्रादिस्थानप्राप्तिहेतुत्वाभ्युपगमात् । तत्कथं निर्जरांगं स्यादिति । नैष दोष-एकस्यानेककार्यदर्शनादग्निवत् । यथाऽग्निरेकोऽपि विक्लेदनभस्मसाद्भावादिप्रयोजन उपलभ्यते, तथा तपोऽभ्युदयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोध: ? संवरहेतुष्वादावुद्दिष्टाया गुप्तेः स्वरूपप्रतिपादनार्थं तावदाह सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥ ४ ॥ योगो व्याख्यातः 'कायवाङ मनस्कर्म योगः' इत्यत्र । तस्य स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवर्तनं निग्रहः । विषयसुखाभिलाषार्थप्रवृत्तिनिषेधार्थं सम्यग्विशेषणम् । तस्मात्सम्यग्विशेषणविशिष्टात् सङ क्लेशाऽ सूत्रार्थ-तप के द्वारा निर्जरा और संक्र होता है । यद्यपि तपः दश धर्मों के अन्तर्गत है फिर भी यहां पृथक ग्रहण किया है उससे तप दोनों का-संवर और निर्जरा का साधन है यह सिद्ध होता है तथा संवर का तो प्रधान साधन है ऐसा सिद्ध होता है । शंका-तपश्चरण अभ्युदय-स्वर्ग का साधन माना गया है, क्योंकि यह देवेन्द्र आदि स्थानों को प्राप्त करने का हेतु है, अतः तपको निर्जरा का कारण कैसे माना जा सकता है ? समाधान-ऐसा नहीं कहना, एक कारण अनेक कार्यों को करते हुए देखा जाता है, जैसे-अग्नि एक होकर भी विक्लेदन-पकाना, भस्म करना इत्यादि अनेक कार्यों को करती है, वैसे तपश्चरण अभ्युदय और कर्मक्षय दोनों का हेतु है, दोनों कार्यों को अकेला ही कर लेता है। इसमें क्या विरोध है ? कुछ भी नहीं। . . संवर के कारणों में पहली कही गयी जो गुप्ति है उसके स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं सूत्रार्थ-मन, वचन और काय योगों का भली प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है। 'कायवाङ मनस्कर्म योगः' इस सूत्र में पहले योग का कथन किया जा चुका है। उस योग की स्वच्छन्द प्रवृत्ति का निग्रह करना गुप्ति है। विषय सुख की अभिलाषा से योग का निग्रह करना गुप्ति नहीं है, इस बात को बतलाने हेतु सम्यग् विशेषण दिया है। उस सम्यग् विशेषण से विशिष्ट, जिसमें संक्लेश उत्पन्न नहीं होता ऐसा काय

Loading...

Page Navigation
1 ... 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628