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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती तथोपपत्तेः । ततश्चक्षुरादिदर्शनानां चतुर्णामावरणं चतुर्भेदम् । निद्रादयश्च दर्शनावरणानि पञ्चेति नवधा दर्शनावरणं बोद्धव्यम् । इदानीं वेदनीयस्योत्तरप्रकृतिभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह
सदसद्व द्ये ॥८॥ यस्योदयादनुग्राहकद्रव्यसम्बन्धापेक्षाद्देवादिगतिषु प्राणिनां शारीरमानसानेकविधसुखपरिणामो भवति तत्सद्वेद्यम् । प्रशस्तं वेद्यं सद्वेद्यम् । यत्फलं दुःखमनेकविधं कायिकं मानसं चातिदुस्सहं नरकादिषु गतिषु जन्मजरामरणवधबन्धादिनिमित्तं प्राणिनां भवति तदसद्वेद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यम् । सद्वेद्यं चासद्वेद्यं च सदसद्वद्ये । ते वेदनीयस्य भेदौ भवतः । अथ मोहनीयस्याष्टाविंशतिप्रभेदस्य किमाख्याः प्रकारा इत्यत्र ब्रमःदर्शनचारित्रमोहनीयाऽकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडश मेवाः सम्यक्त्वमिथ्यात्व
तदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुनपुंसकवेदा अनन्तानुबल्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्ज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः॥६॥
वश ऐसा सम्बन्ध बन जाता है। उनमें चक्षु आदि चार दर्शनों का आवरण चार ही भेदवाला है । तथा निद्रा आदि दर्शनावरण पांच भेदवाला है, सब मिलकर नौ प्रकार का दर्शनावरण कर्म जानना चाहिए ।
अब वेदनीय कर्म के उत्तर प्रकृति भेद बताते हैंसूत्रार्थ-वेदनीय कर्म के दो भेद हैं साता वेदनीय और असाता वेदनीय ।
जिसके उदय से अनुग्राहक द्रव्यों के सम्बन्ध की अपेक्षा लेकर देवादि गतियों में जीवों को शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार के सुख परिणाम होते हैं वह साता वेदनीय कर्म है, प्रशस्त वेद्य को साता या सत् वेद्य-वेदनीय कहते हैं। नरकादि गतियों में जिसका फल अनेक प्रकार का शारीरिक और मानसिक अत्यन्त दुःसह दुःख रूप है, जिसके निमित्त से जीवों को जन्म, जरा, मरण, वध, बन्ध इत्यादि कष्ट होते हैं वह असाता वेदनीय कर्म है । अप्रशस्त वेद्यको असाता वेदनीय कहते हैं । ये दो भेद वेदनीय कर्म के जानने चाहिए।
प्रश्न-मोहनीय कर्म अठ्ठावीस भेद वाला है उसके क्या नाम हैं ? अथवा कौन से प्रकार हैं ?
उत्तर-इसीको सूत्र द्वारा बतलाते हैं
सत्रार्थ-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ऐसे मोहनीय के दो भेद हैं । पुनः चारित्र मोहनीय के अकषायवेदनीय और कषायवेदनीय प्रकार हैं, दर्शनमोहनीय के तीन