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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो सत्कर्मापेक्षया वैविध्यमास्कन्दति-सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं तदुभयं चेति । तत्र यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ मुखस्तत्त्वार्थश्रद्धान निरुत्सुको हिताहितविभागाऽसमर्थो मिथ्यादृष्टिर्जीवो भवति तन्मिथ्यात्वकर्मोच्यते । तदेव शुभपरिणामविशुद्धस्वरसं सत् सम्यक्त्वाख्यां लभते । तच्चौदासीन्येनावस्थितं सदात्मानं श्रद्दधानं न निरुणद्धि । तद्वेदयमानः पुरुषो वेदकसम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते । तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात् क्षीणाऽक्षीणमदशक्तिकोद्रववदर्धशुद्धस्वरसं सत् तदुभयमित्याख्यायते-सम्यङिमथ्यात्वमिति यावत् । तदुभयादुभयपरिणामपरिणत आत्मा सम्यङि मथ्यादृष्टिरित्यभिधीयते । चारित्रमोहनीयस्य द्वौ भेदौ कावित्याह-अकषायकषायाविति । अकषाय ईषत्कषाय इत्यर्थः । अकषायश्च कषायश्चाकषायकषायाविति विग्रहः। तत्राकषायवेदनीयस्य नवभेदा हास्यादय उच्यन्ते-वेद्यतेऽनुभूयते यः स वेदो लिङ्गमिति यावत् । स स्त्रयादिविशेषणभेदत्त्रेधा-स्त्री च पुमांश्च नपुसकं च स्त्रीनपुस
उत्तर-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । यह दर्शनमोहनीय कर्म बन्ध की अपेक्षा एक है किन्तु सत्ता की अपेक्षा उक्त तीन भेद वाला हो जाता है। जिसके उदय से यह जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से पराङ मुख रहता है, तत्त्वार्थश्रद्धान में उत्सुक नहीं हो पाता, जिसको हित अहित का भेद भी ज्ञात नहीं है जिसके उदय से मिथ्यादृष्टि संज्ञा होती है वह मिथ्यात्व कर्म है । उसी मिथ्यात्व कर्मका रस जब शुभ परिणाम द्वारा कम हो जाता है तब उसे सम्यक्त्व प्रकृति कहते हैं । यह कर्म उदासीनता से आत्मा में उदित होने पर भी आत्माके श्रद्धान को नहीं रोकता है। इस सम्यक्त्व कर्म का वेदन करने वाला पुरुष सम्यग्दृष्टि कहलाता है। वही मिथ्यात्व कर्म प्रक्षालन विशेष से क्षीण अक्षीण मद शक्ति वाले कोदों धान्य के समान आधी विशुद्धिरूप अपने रसको धारण करता है तब उसको सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं। दो तरह के-सम्यक्त्व
और मिथ्यात्व के मिले परिणाम से परिणत होने से आत्मा सम्यग्मिथ्याष्टि कहा जाता है।
प्रश्न-चारित्रमोहनीय के दो भेद कौन से हैं ?
उत्तर-अकषाय और कषाय । ईषत् कषाय को अकषाय कहते हैं। अंकषाय वेदनीय के हास्यादि नौ भेद हैं । अब उनका कथन करते हैं—जो वेदा जाय वह वेद है, वेद और लिंग एकार्थ वाची हैं । स्त्री आदि विशेषण से वेद के तीन भेद होते हैं। स्त्री आदि तीन पदों का द्वन्द्व करके पुनः कर्मधारय समास से वेद शब्द जोड़ा है । हास्यादि पदों में द्वन्द्व समास है । जिसके उदय से आत्मा के हास्य का परिणाम उत्पन्न होता है वह हास्य द्रव्यकर्म है । जिसके उदय से आत्माके देश आदि में उत्सुकता उत्पन्न होती है