________________
४६४ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती गूयते शब्द्यतेनेनेति गोत्रम् । दातृदेयादीनामन्तरं मध्यमेति ईयते वाऽनेनेत्यन्तरायः । यथा चान्नादेरभ्यवह्रियमाणस्यानेकविकारसमर्थवातपित्तश्लेष्मखलरसभावेन परिणाम विभागो भवति तथैकेनात्मपरिणामेनादीयमाना: पुद्गलाः प्रवेशकाल एवावरणानुभवनमोहापादनभवधारणनानाजातिनामगोत्रव्यवच्छेदकरणसामर्थ्य विश्वरूपेणात्मनि सन्निधानं प्रतिपद्यन्ते । ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शने । तयोरावरणे ज्ञानदर्शनावरणे। ततो ज्ञानदर्शनावरणादिशब्दानामितरेतरयोगे द्वन्द्वः करणीयः । एवं ज्ञानावरणादयोऽन्तरायान्ता प्राद्यो मूलप्रकृतिबन्धोऽष्ट विधो वेदितव्यः । इदानीमुत्तरप्रकृतिबन्धभेदकथनार्थमाह
पंचनवद्वयष्टाविंशतिचतुद्विचत्वारिंशद्विपंचभेदो यथाक्रमम् ॥५॥
पञ्च च नव च द्वौ चाष्टाविंशतिश्च चत्वारश्च द्विचत्वारिंशच्च द्वौ च पञ्च च पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंश द्विपञ्च । ते भेदा यस्य स भवति पञ्चनवद्वयष्टाविंशति चतुद्धिचत्वारिंशद्विपञ्चभेद इति द्वन्द्वगर्भोऽन्यपदार्थनिर्देशोऽत्र द्रष्टव्यः । कथमत्रान्यपदार्थहै अथवा जिसके द्वारा नमाया जाता है वह 'नाम' है, नाम शब्द उणादिगण में निपात से बना है। उच्च और नीच शब्द से जो कहलाता है वह गोत्र है। दाता और देय आदि के अन्तराल में-मध्य में जो आता है वह अन्तराय है। जिस प्रकार खाये गये अन्नादि का अनेक विकार करने में समर्थ ऐसे वात, पित्त, कफ, खल और रस भाव से परिणमन विभाग या भेद होता है, उसी प्रकार आत्मा के परिणाम के द्वारा ग्रहण किये पुद्गल प्रवेश करते समय ही आवरण, अनुभवन, मोहापादन, भवधारण, नाना जातियों के नामकरण, गोत्र और विघ्नकरण की सामर्थ्य युक्त अनेक रूप से आत्मा के सन्निधान को प्राप्त कर लेते हैं, अर्थात् अनेक रूप से परिणमन कर जाते हैं। ज्ञान और दर्शन शब्दोंका द्वन्द्व करके आवरण शब्दके साथ तत्पुरुष समास हुआ है, फिर सबका इतरेतर द्वन्द्व समास हुआ है। इस तरह ज्ञानावरण से लेकर अन्तराय पर्यन्त आदि के मूल प्रकृति बन्धके आठ प्रकार जानना चाहिए।
अब उत्तर प्रकृति बन्धके भेद कहते हैं
सूत्रार्थ-उत्तर प्रकृति बन्ध यथाक्रम से पांच, नौ, दो, अट्ठावीस, चार, बियालीस, दो और पांच भेद वाला है ।
पञ्च आदि पदों का द्वन्द्व समास करके फिर बहुब्रीहि समास द्वारा भेद शब्द जोड़ना चाहिए।
प्रश्न-यहां पर अन्य पदार्थत्व से उत्तर प्रकृत्ति बन्ध के ग्रहण हेतु द्वितीय शब्द क्यों नहीं लिया ?