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- अष्टमोऽध्यायः
[ ४६७ देशान्मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानं वास्त्यभव्यस्य तहि भव्यत्वमस्य प्राप्नोतीति चेत्स्यादेवं यदि सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रशक्तिभावाभावाभ्यां भव्याभव्यत्वं कल्प्यते । न चैवम् । कथं तहि सम्यक्त्वादिव्यक्तिभावाभावाभ्यां भव्याभव्यत्वविकल्प: ? कनकेतरपाषाणवत्-यथा कनकभावव्यक्तियोगमवाप्स्यतीति कनकपाषाणमित्युच्यते, तदभावादन्धपाषाणमिति । तथा सम्यक्त्वादिपर्यायव्यक्तियोगार्हो यः स भव्यस्तद्विपरीतोऽभव्य इत्युच्यते । अत्राह-केषां दर्शनानामावरणं काश्च दर्शनावरणं भवन्तीत्यत्रोच्यतेचारचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला प्रचलाप्रचला स्त्यानगद्धयश्च ॥७॥
आत्मनो रूपपरिच्छेदने उपकरणभूतमिन्द्रियं चक्षुरिति व्याख्यातम् । तत्पर्यु दासप्रतिषेधादचक्षुरपि स्पर्शाद्यर्थग्रहणे उपकरणमेव स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रेन्द्रियं नो इन्द्रियाख्यं पञ्चप्रकारमुक्तम् ।
शंका-द्रव्याथिक नयकी दृष्टि से अभव्य के मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान है तो उस जीव के भव्यपना आ जायेगा?
____समाधान-ऐसी बात तब होती जब सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र की शक्ति का सद्भाव होने से भव्यत्व और उस शक्ति के अभाव से अभव्यत्व स्वीकार किया जाय, किंतु ऐसा स्वीकार नहीं किया गया है ।
प्रश्न-फिर किस प्रकार स्वीकार किया है ?
उत्तर-सम्यग्दर्शन आदि की प्रगटता जिसके होगी वह भव्यत्व युक्त है और जिसके वह प्रगटता नहीं होगी वह अभव्यत्व है, जैसे-कनक पाषाण और अन्ध पाषाण, अर्थात् जो सुवर्णभाव की प्रगटता को प्राप्त करेगा वह सुवर्ण पाषाण है और जो सुवर्ण भाव की प्रगटता को प्राप्त नहीं करेगा वह अन्धपाषाण कहा जाता है, ठीक इसी तरह सम्यक्त्व आदि पर्याय की अभिव्यक्ति के जो योग्य है वह भव्य है और उक्त पर्याय की अभिव्यक्ति जिसके नहीं होगी वह अभव्य है।
प्रश्न-किन दर्शनों का आवरण है और कौन दर्शनावरण प्रकृतियां हैं ? उत्तर-इसीका सूत्र द्वारा प्रतिपादन करते हैं
सूत्रार्थ-- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन का आवरण होता है तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पांच निद्रायें हैं इस तरह ये दर्शनावरण की प्रकृतियां हैं।
___ आत्मा के रूप देखने की जो उपकरणभूत इन्द्रिय होती है वह चक्षु कहलाती है इसका व्याख्यान हो चुका है । उसके पर्युदास प्रतिषेधरूप अचक्षु भी स्पर्श आदि अर्थ