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षष्ठोऽध्यायः
[ ३६९ अहिंसादिलक्षणो जिनप्रवचने निर्दिष्टोधर्म इत्युच्यते । देवाश्चतुर्णिकाया व्याख्याताः । गुणवत्सु चान्तःकालुष्यसद्भावादसद्भूतदोषोद्भावनमवर्णवदनमवर्णवाद इति वर्ण्यते । केवलिनश्च श्रुत च संघश्च धर्मश्च देवाश्च तेषामवर्णवादः केवल्याद्यवर्णवादः । दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धान व्याख्यातम् । दर्शनं मोहयति प्रतिबध्नातीति दर्शनमोहः । दर्शनस्य मोहनं वा दर्शनमोहः कर्मविशेष उच्यते । तत्र केवलिनामवर्णवादः कवलाहारित्वाद्यभिधानम् । श्रुतस्य मांसभक्षणाद्यवद्यतावचनं, संघस्य शूद्रत्वाऽशुचित्वाद्याविर्भावनं, धर्मस्य निर्गुणत्वाद्यभिधानं, देवानां सुरामांसोपसेवनाद्याघोषणमवर्णवादः । स सर्वोऽपि दर्शनमोहस्य प्रत्येकमास्रवो भवति सङ क्लेशहेतुत्वात् । अधुना चारित्रमोहास्रवमाह
कषायोदयात्तीवपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥१४॥ कषायो निरुक्तः । पूर्वोपात्तस्य द्रव्यक्रमणो द्रव्यादिनिमित्तवशात्फलप्राप्तिः परिपाक उदय इत्यभिधीयते । कषायस्योदयः कषायोदयस्तस्मात्कषायोदयात् । तीव्रपरिणामशब्दो व्याख्यातार्थः ।
गया अहिंसा आदि लक्षण वाला धर्म है। देव चार प्रकार के होते हैं इनका वर्णन हो चुका है। मनके अन्दर कलुष परिणाम होने से गुणवान पुरुषों में असत् दोषको प्रगट करना अर्थात् दोष नहीं है तो भी सदोष बतलाना 'अवर्णवाद' कहलाता है। केवली आदि पदों में द्वन्द्व गर्भित तत्पुरुष समास है । तत्त्वार्थ श्रद्धान को दर्शन कहते हैं, इसका कथन कर चुके हैं । 'दर्शनम् मोहयति प्रति बध्नाति इति दर्शनमोहः' दर्शन को जो मोहित करे वह दर्शन मोह कर्म है। अथवा दर्शन का जो मोह है दर्शन मोह है। केवली भगवान कवलाहार करते हैं इत्यादि कहना, केवली का अवर्णवाद है। शास्त्र में मांस भक्षण कहा है इत्यादि कहना श्रुतका अवर्णवाद है। संघ के साधु शूद्रके समान हैं अशुचि हैं इत्यादि कहना संघका अवर्णवाद है । धर्म तो निर्गुण है इत्यादि रूप से कहना धर्मका अवर्णवाद है। देव मदिरा पीते हैं इत्यादि कहना देव का अवर्णवाद है। यह सर्व ही एक-एक भी अवर्णवाद दर्शन मोहनीय कर्मका आसव है। क्योंकि ये संक्लेश परिणाम स्वरूप हैं।
अब चारित्र मोह कर्मका आसूव कहते हैं
सूत्रार्थ-कषाय के उदय से तोव परिणाम होना चारित्र मोहनीय कर्म का आसव है।
कषाय का अर्थ कह चुके हैं । पूर्व के उपार्जित द्रव्य कर्मका द्रव्य क्षेत्र आदि के निमित्त से फल प्राप्त होना पकना उदय कहलाता है । कषाय के उदय को कषायोदय