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षष्ठोऽध्यायः
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च सदसद्गुण । प्रतिबन्ध कहेतुसन्निधाने सत्यनाविर्भावनं छादनमित्यवसीयते । प्रतिबंधकस्य हेतोरभावे सति प्रकाशितवृत्तिता उद्भावनमित्याख्यायते । छादनं चोद्भावनं च च्छादनोद्भावने । सदसद्गुणयो - छादनोद्भावने सदसद्गुणच्छादनोद्भावने । अत्रापि यथासङ्ख्यमभिसम्बन्धः - सद्गुणच्छादनमसद् - गुणोद्भावनमिति । चशब्दोऽनुक्तत द्विस्तरसमुच्चयार्थः । नीचैरित्ययं शब्दोऽधिकरणप्रधानो निकृष्टवाची द्रष्टव्यः । गूयते शब्द्यते तदिति गोत्रम् । नीचैःस्थाने येनात्मा क्रियते तन्नीचैर्गोत्रं कर्मोच्यते । तस्यास्रत्रकारणान्येतानि परनिन्दादीनि वेदितव्यानि । उच्चैर्गोत्रस्यास्त्रक्माह
तद्विपर्ययो नोचेत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२६॥
प्रत्यासत्तेस्तदित्यनेन नीचैर्गोत्रास्रवः प्रतिनिदिश्यते । विपर्ययोऽन्यथावृत्तिः । तस्य विपर्ययस्तद्विपर्ययः कः पुनरसौ ? श्रात्मनिन्दा परप्रशंसा सद्गुणोद्भावनमसद्गुरणच्छादनं चेति । गुणोत्कृष्टेषु
गुण शब्द के साथ कर्मधारय समास हुआ है । प्रतिबन्धक हेतु के होने पर प्रगट नहीं होने देना छादन है । प्रतिबन्धक हेतु के अभाव होने पर प्रगट करना उद्भावन है । छादन और उद्भावन में द्वन्द्व समास कर फिर 'सदसदगुणयोः छादनोद्भावने सदसद्गुण च्छादनोद्भावने' ऐसा तत्पुरुष समास करना। यहां भी यथासंख्य सम्बन्ध है - सद्गुणों का छादन करना और असत् गुणों को प्रगट करना अर्थात् अपने में गुण नहीं है तो भी प्रगट करना और दूसरे में गुण मौजूद है तो भी प्रगट नहीं करना, इससे नीच गोत्र का आसूव होता है । च शब्द सूत्र में जो नहीं कहे हैं उन आसूवों को ग्रहण करने के लिये आया है । 'नीच' यह शब्द अधिकरण प्रधान निकृष्टवाची है । 'गूयते तद् गोत्रम्' यह गोत्र शब्द की निरुक्ति है । जिसके द्वारा आत्मा नीचे स्थान में किया जाता है वह नीचगोत्र कर्म है । उस नीच गोत्र कर्मके आसूव के कारण ये परनिन्दा आदि है ऐसा समझना चाहिए ।
उच्च गोत्र के आसव कहते हैं
सूत्रार्थ -नीच गोत्र के जो आसूव कहे थे आसूव हैं, तथा नीचवृत्ति - नमवृत्ति होना और आसू हैं ।
उससे विपरीत भाब उच्च गोत्र के उत्सेक नहीं होना ये उच्चगोत्र कर्म के
निकट होने से तद् शब्द द्वारा नीच गोत्र कर्मके आसूव का निर्देश किया है । अन्यथावृत्ति को विपर्यय कहते हैं । वह विपर्यय कौनसा है सो बताते हैं - अपनी निन्दा और परकी प्रशंसा करना सद्गुण को प्रगट करना और असद् गुणका छादन करना