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सप्तमोऽध्यायः
[ ४३५ शूत्कृतादिशब्दस्यानुपातनं शब्दानुपात इति कथ्यते । तथा स्वशरीरप्रदर्शनं रूपानुपातः । शब्दत्व रूपं च शब्दरूपे । तयोरनुपातौ शब्दरूपानुपातौ। लोष्टादेः पुद्गलस्य क्षेपणं पुद्गलक्षेपः । आनयनं च प्रेष्यप्रयोगश्च शब्दरूपानपातौ च पुदगलक्षेपश्च प्रानयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानपातपदगल
तपद्गलक्षेपाः। एते देशविरमणस्य गुणव्रतस्य पञ्चातिक्रमा भवन्ति । कथमिहातिक्रम इति चेदुच्यते-यस्मात्स्वयमनतिक्रामन्परेणातिक्रमयति ततोऽतिक्रम इति व्यपदिश्यते । यदि हि स्वयमतिक्रमेत तदाऽव्रतत्वमेवास्य स्यात् । संप्रत्यनर्थदण्डविरमणशीलस्यातिचारानाह
कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्याऽसमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥३२॥
रागोद्रकात्सप्रहसनाशिष्टवाक्प्रयोगः कन्दर्पः । स एव परत्र दुष्टकायकर्मयुक्तः कौत्कुच्यम् । धाष्टर्यप्रायमबद्धबहुप्रलापित्वं मौखर्यम् । असमीक्ष्यकार्यस्याधिक्येन करणमसमीक्ष्याधिकरणम् । तत् त्रेधा व्यवतिष्ठतेमनोवाक्कायविषयभेदात् । तत्र मानसं परानर्थककाव्यादिचिन्तनम् । वाग्गतं निष्प्रयोइशारा करना शब्दानुपात है और अपने शरीर को दिखाकर कार्य कराना रूपानुपात है। इस तरह शब्द और रूपका अनुपात करना । लोष्ट आदि को फेंकना पुद्गल क्षेप है । आनयन आदि पदों में द्वन्द्व समास जानना चाहिए। इस प्रकार आनयन आदि ये पांच देश विरमण गुणवत के अतिचार हैं ।
प्रश्न-इनको अतिक्रम किस प्रकार कहते हैं ?
उत्तर-जिस कारण से यह व्यक्ति स्वयं इष्ट कार्यको मर्यादा के बाहर होने से नहीं करता मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता किन्तु परके द्वारा उसका उल्लंघन कराता है अतः व्यतिक्रम कहलाता है । यदि स्वयं करेगा तो उसके अवतपना होगा।
अब अनर्थदण्ड विरमण नामके शील के अतिचार बताते हैं
सूत्रार्थ-कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्य अधिकरण और उपभोग परिभोग का आनर्थक्य ये पांच अनर्थदण्ड विरति के अतिचार हैं ।
रागके उद्रेक से ह्रास मिश्रित अशिष्ट वचन बोलना कन्दर्प है। परके प्रति शरीर की खोटी चेष्टा पूर्वक उक्त ह्रास वचन कहना कौत्कुच्य है। धृष्टता से सम्बन्ध रहित बहुत बकवास करना मौखर्य है। बिना सोचे व्यर्थ के बहुत से कार्य करना असमीक्ष्याधिकरण है। वह मन, वचन और कायके भेद से तीन प्रकार का है। परके व्यर्थ के काव्यादि का चिन्तन करना मानस असमीक्ष्याधिकरण है । व्यर्थ की कथायें कहना वचन असमीक्ष्याधिकरण है और परको पीड़ादायक जो कुछ भी शरीर द्वारा व्यर्थ की चेष्टा