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सप्तमोऽध्यायः
[ ४४५ दर्शनश्रावकेन त्याज्यम् । स एवाणुव्रतनियमसंयुक्तः केनचित्शिक्षाव्रतनियमेनापि सम्पन्नो व्रतश्रावक इति द्वितीयः ख्यायते । स एवोक्तलक्षणसामायिकनियमान्वितस्तु सामायिकगुणश्रावक इति तृतीयः कथ्यते । स एव पुनर्यथाशक्ति प्रोषधोपवासनियमरतश्चतुर्थः प्रोषधीति व्यपदिश्यते । तथा चोक्तम्
पर्वाणि प्रोषधान्याहुर्मासि चत्वारि तानि च । पूजाक्रियाव्रताधिक्याद्धर्मकर्मात्र बृहयेत् ।। रसत्यागैकभुक्तये कस्थानोपवसनक्रियाः ।
यथाशक्ति विधेयाः स्युः पर्वसन्धौ च पर्वणि ।। इति ।। स एव श्रावको यदि हरितं पत्रफलादिकमप्रासुकं वर्जयेत्तदा सचित्तविरतनामा पञ्चमो भवति । तदप्युक्तम्
जं वज्जिज्जदि हरिदं तय पत्तपवालकन्दफलबीयं ।
अप्पासुगं च सलिलं सचित्तनिवित्ति तट्ठाणम् ।। इति ।। स एव पुनर्यदि मनोवाक्कायैर्दिवामैथुनविरतः स्यात्तदा षष्ठो रात्रिभक्तश्रावक इति परिभाष्यते। यदि पुनः पूर्वोक्तगुणयुक्त एव श्रावको रात्री दिवा च मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतमैथुन
श्रावकों को त्याग करना चाहिए । उपर्युक्त दर्शन गुण युक्त तथा अणुव्रतों से युक्त और किसी शिक्षा व्रत से युक्त श्रावक व्रत नामकी दूसरी प्रतिमा वाला होता है । उन्हीं गुणों के साथ सामायिक नियम युक्त होता है तो वह श्रावक सामायिक प्रतिमाधारी तृतीय स्थानवर्ती होता है। उसीके साथ यथाशक्ति प्रोषधोपवास में रत चौथा प्रोषध नियमधारी है। कहा है कि-पर्वोको प्रोषध कहते हैं, पर्व एक मास में चार होते हैं । इन चार पर्वो के दिनों में (एक मासकी दो अष्टमी, दो चतुर्दशी में) पूजाक्रिया, व्रत, नियम आदि धर्म कर्म अधिक बढ़ाने चाहिए। रस त्याग, एक भक्ति, एक स्थान और उपवास इस प्रकार इन क्रियाओं में से यथाशक्ति नियम क्रिया पर्व सन्धि और पर्व में करना चाहिए ॥१॥२॥
__ वही श्रावक यदि हरे पत्ते फल आदि अप्रासुक वस्तुओं को छोड़ देता है तो वह सचित्त विरत नामा पञ्चम स्थान वाला होता है। उसके विषय में भी कहा है-जो हरे पत्त प्रवाल, कन्द, फल और बीजों को छोड़ देता है तथा अप्रासुकजल को छोड़ता है वह सचित्त त्याग नाम वाली पञ्चम प्रतिमा को प्राप्त करता है ।।१।। वही श्रावक यदि मन वचन और काय से दिन में मैथुन का त्याग करता है तो रात्रिभक्तविरत नामकी छट्ठी प्रतिमा वाला कहलाता है । यदि उन्हीं पूर्वोक्त गुणों से युक्त श्रावक रात्रि