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सप्तमोऽध्यायः
[ ४२३ योग्यमुपयोजनीयम् । प्रतिश्रयश्च परमधर्मश्रद्धया प्रतिपादयितव्य इति । चसन्दो वक्ष्क्माणगृहस्थधर्मसमुच्चयार्थः । कः पुनरसौ ?
मारणान्तिको सल्लेखना जोषिता ॥२२॥ आयुरिन्द्रियबलसंक्षयो मरणम् । अन्तग्रहणं तद्भवमरणप्रतिपत्त्यर्थम् । मरणमेवान्तो मरणान्तः। मरणान्तः प्रयोजनमस्या मरणान्ते भवा वेति मारणान्तिकी। सच्छब्दः प्रशस्तवाची । लिखेयेन्तस्य युचि प्रत्यये सति तनूकरणेऽर्थे लेखनेत्ति सिध्यति । ततः कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनया क्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखनेति समासार्थः कथ्यते । जोषितेति जुषि प्रीतिसेवनयोरिति तृन्नन्तस्यार्थद्वये सिद्धिः । ततो मारणान्तिकी सल्लेखनां महत्या प्रीत्या स्वयमेव सेविता गृहीति सम्बन्धः क्रियते । ननु सल्लेखनामास्थितस्य स्वाभिसन्धिपूर्वकायुरादिनिवृत्तेरात्मवधः
उपकरण देना चाहिए । योग्य शुद्ध प्रासुक औषध देना चाहिए। परम धर्मश्रद्धा से प्रतिश्रय-आश्रय देना चाहिए। इस प्रकार ये चार दान देने चाहिए। सूत्र में च शब्द आगे कहे जाने वाले गृहस्थ धर्मका समुच्चय करने के लिए आया है।
अब वह धर्म कौनसा है सो बताते हैं
सूत्रार्थ-मरण के अन्त में होने वाली सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करना चाहिए।
आयु, इंद्रिय और बलका नाश हो जाना मरण है । उस भवका मरण होना मरणान्त है, मरणान्त है प्रयोजन जिसका अथवा मरणान्त में जो होके वह मारणान्तिकी कहलाती है। सत् शब्द प्रशंसावाची है, लिख धातु कृश करने अर्थ में है उसके आगे चुरादिगण में युच् प्रत्यय आने पर लेखना शब्द बनता है। बाह्य में शरीर का और अभ्यन्तर में कषायों का और उनके कारणों का क्रम से कम करना सम्यग्लेखना सल्लेखना कहलाती है । यह सल्लेखना शब्द का अर्थ है । जुषि धातु प्रीति और सेवन अर्थ में आता है। उन दोनों अर्थों में जुष धातु से तृन् प्रत्यय आकर 'जोषिता' शब्द निष्पन्न होता है। इससे यह फलितार्थ होता है कि मरणके अन्त में होने वाली सल्लेखना को गृहस्थ को बड़ी प्रोतिपूर्वक स्वेच्छा से सेवन करना चाहिए।
शंका-सल्लेखना करने वाला व्यक्ति अभिप्रायपूर्वक अपनी आयु आदि प्राणों का त्याग करता है अतः यह आत्मवध कहलायेगा ?