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सप्तमोऽध्यायः
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तानुमतविकल्पैहिंसादिसर्वसावद्यनिवृत्तिसद्भावादहिंसाद्यणुव्रतधारणोप्यस्यमहावृतत्वमवसेयम् । तथैव देशनिवृत्तिः कार्या। मदीयस्य गृहान्तरस्य तटाकस्य वा मध्यस्थं मुक्त्वा देशान्तरं न गमिष्यामीति । तन्निवृत्तौ पूर्ववत्प्रयोजनं वेदितव्यम् । महाव्रतत्वं च बहिर्व्यवस्थाप्यम् । कथमनयोविशेष इति चेदुच्यतेदिग्विरतिः सार्वकालिकी। देशविरतिश्च यथाशक्ति कालनियमेनेति । अनर्थदण्डः पञ्चधा भिद्यते । कुत: ? अपध्यानपापोपदेशप्रमादाचरितहिंसोपकरणप्रदानाऽशुभश्रुतिभेदात् । तत्र जयपराजयवधबंधांगच्छेदस्वहरणादिकं कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम् । क्लेशतिर्यग्वणिज्यावधकारम्भादिषु पापसंयुक्त वचनं पापोपदेशः । तद्यथा-अस्मिन् देशे दासा दास्यश्च सुलभाः सन्ति । तान् देशान्तरं नीत्वा विक्रये कृते महानर्थलाभो भवतीति क्लेशवणिज्या। गोमहिष्यादीनमुत्र गृहीत्वाऽन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्तलाभो भवतीति तिर्यग्वणिज्या। वागुरिकसौकरिकशाकुनिकादिभ्यो मृगवराहशकुन्तप्रभृतयोऽमुष्मिन् देशे सन्तीति प्रतिपादनं वधकोपदेशः । प्रारम्भकेभ्यः कृषिबलादिभ्यः क्षित्युदकज्वलनपवनवनस्पत्यारम्भोऽनेनोपायेन कर्तव्य इत्याख्यानमारम्भकोपदेश इत्येवं प्रकारं पापसयुक्त वचनं
वाले पुरुष के अपनी मर्यादा के बाहर के क्षेत्र में कृतकारित, अनुमत, मन, वचन और काय इन नौ कोटियों से हिंसादि सर्व पापों का त्याग हो जाता है अतः अणुव्रती होते हुए भी उस व्रती श्रावक के महावतपना आ जाता है। दिग्वत के समान देश निवृत्ति करनी चाहिए। मेरे गृह से लेकर तालाब तक के बीच के स्थान को छोड़कर अन्य जगह मैं नहीं जावूगा, इत्यादिरूप से इसमें नियम होता है इससे मर्यादा के बाहर उसके सर्व पापोंका त्याग हो जाता है और इस दृष्टि से महावतत्व भी बन जाता है।
प्रश्न-दिग्वत और देशवत में क्या भेद है ?
उत्तर- दिग्विरति व्रत में सार्वकालिक नियम होता है और देशवत में यथाशक्ति कालकी मर्यादा लेकर नियम होता है अर्थात् मैं जीवनपर्यंत अमुक अमुक पर्वतादि तक ही जागा इससे आगे कभी नहीं जावू'गा। इस प्रकार हमेशा के लिए सब दिशाओं का नियम लेना दिग्विरति व्रत है और चार दिन आदि कालकी मर्यादा से गमनागमन का नियम लेना देशवत है।
अनर्थ दण्ड पांच प्रकार का है-अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसा के उपकरण देना और अशुभ श्रवण । जय पराजय विचार, मारन, बांधना, अङग छेदना, धनका हर जाना इत्यादि विषयों का मनसे चिन्तन करना अपध्यान है । क्लेश-कष्टकारक व्यापार पशु आदि का व्यापार आरम्भ वधादिकारक पापयुक्त वचनों को कहना