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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती तद्विरमणं श्रेय इति । एवं ह्यस्य हिंसादिष्विहापायममुत्र चाऽवद्यं पश्यतस्ततो विरतिरप्युपपद्यते अहिंसा तु तदृढत्वसिद्धेरप्रतिबाधिता स्यात् । पुनरपि हिंसादिषु भावनान्तरमाह
दुःखमेव वा ॥१०॥ हिंसादयो दुःखमेवेति भावनीयम् । ननु दुःखमसāद्योदयकृतपरिताप उच्यते । हिंसादयश्च क्रियाविशेषास्तत्कथं ते दुःखमेवेति व्यपदेशमर्हन्तीति । अत्रोच्यते- हिंसादयो दुःखमेवेति व्यपदिश्यन्ते कारणे कार्योपचारादन्नप्राणवत् । यथाऽन्न वै प्राणा इति प्राणकारणेऽन्ने प्राणोपचारस्तथा दुःखकारणेषु हिंसादिषु दु खोपचारो वेदितव्यः । कारणकारणे वा कार्योपचारो धनप्राणवत् । यथा द्रविणहेतुकमन्नपानमन्नपानहेतुकाः प्राणा इति प्राणकारणकारणे द्रविणे प्राणोपचार:
यदेतद्रविणं नाम प्राणा एते बहिश्चराः । स तस्य हरते प्राणान्यो यस्य हरते धनम् ।। इति ।।
इस प्रकार जो भी भव्यात्मा इन पापों के विषय में अपाय और अवद्यको देखता रहता है सोचता रहता है वह पाप क्रिया से दूर हो जाता है ।
अहिंसा भावना तो व्रत दृढ़ता करती है, वह बाधाकारक नहीं होती। पुनः हिंसादि पापों के विषय में भावना बताते हैंसूत्रार्थ-ये हिंसादि पाप स्वयं दुःख ही हैं ऐसा विचार करना चाहिये । हिंसादिक दुःख स्वरूप ही हैं ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।
शंका-असाता वेदनीय कर्मके उदय से जो परिताप होता है उसे दुःख कहते हैं और ये हिंसादिक तो क्रियारूप हैं इसलिये इन हिंसादि क्रियाविशेषों को 'दुःख ही है' ऐसा नाम देना ठीक नहीं है ?
समाधान-हिंसादिको जो दुःख रूप कहा है वह कारण में कार्य का उपचार करके कहा है, जैसे अन्नको प्राण कह देते हैं, अर्थात् जैसे अन्न ही प्राण है ऐसा प्राणों के कारणभूत अन्नमें प्राणकार्य का उपचार करते हैं, वैसे हिंसादिक दुःखके कारण हैं उनको दुःख कह देते हैं। अथवा कारण के कारण में भी कार्यका उपचार करते हैं जैसे धन ही प्राण है धन तो अन्नादि का कारण और अन्न प्राणका कारण है ऐसे प्राण के कारण के कारणभूत धन में प्राणका उपचार करते हैं। कहा है कि यह जो धन है वह जीवों का बाहरी प्राण है जो पुरुष धनका अपहरण करता है वह उसके प्राणोंका ही अपहरण करता है ॥१॥