________________
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥ ४ ।।
नित्यशब्दोऽयं ध्रौव्यवचनो वेदितव्यो नेध्रुव इत्यन्वाख्यातः । किं पुनर्नित्यत्वमिति चेदुच्यतेयेन भावेनोपलक्षितं द्रव्यं तस्य भावस्याव्ययोऽनिधनो नित्यत्वमित्युच्यते । तथा च वक्ष्यते - तद्भावाव्ययं नित्यमिति पर्यायार्थिकनया देशात्प्रतिक्षणपरिणामानेकत्वसम्भवेऽपि धर्मादीनि द्रव्याणि गतिहेतुत्वादि विशेषलक्षणद्रव्यार्थादेशात् प्रस्तित्वादिसामान्यलक्षणद्रव्यार्थादेशाच्च कदाचिदपि न वीयन्त्यतो नित्यानीत्युच्यन्ते । धर्मादीनि षडपि द्रव्याणि षडित्येतदीयत्वं यथोक्तस्वप्रदेशत्वं च कदाचिदपि नातिक्रामन्त्यतोऽवस्थितानीति व्यपदिश्यन्ते । अथवा नित्यग्रहरणमिदमवस्थितविशेषणं विज्ञायते । ततश्चायमर्थः यथा गमनागमनाद्यनेकपर्यायसद्भावेप्यभीक्ष्णप्रज्वलनसद्भावान्नित्यप्रज्वलितो देवदत्त इत्युच्यते तथान्त रङ्गबहिरङ्गकारणद्वयोपजनितोत्पादविनाश संभवेप्यमूर्तत्वादिस्वभावं कदाचिदपि धर्मादीनि न परित्य जन्त्यतो नित्यानि च तान्यवस्थितानि च नित्यावस्थितानीति कथ्यन्ते । रूपग्रहणं द्रव्यस्वतत्व निर्ज्ञा
२५८ ]
सूत्रार्थ – वे द्रव्य नित्य, अवस्थित और अरूपी हैं । नित्य शब्द ध्रौव्यवाची है | " ने ध्रुवः " सूत्र से यह बना है ।
शंका - नित्यत्व किसे कहते हैं ?
समाधान - जो जिस भाव से उपलक्षित है उस द्रव्य का उस भाव से नाश नहीं होना अनिधन रहना वह नित्यत्व कहलाता है । आगे सूत्र कहेंगे कि “तद्भावाव्ययं नित्यम्" पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा प्रतिक्षण परिणमन होने से अनेकपना संभव है तो भी ये धर्मादि द्रव्य गति हेतुत्व आदि लक्षण को तथा अस्तित्व आदि सामान्य लक्षण को द्रव्यार्थिक नय से कभी भी नहीं छोड़ते हैं अतः ये नित्य कहलाते हैं । धर्मादि छहों द्रव्य अपने छह संख्या को कभी नहीं छोड़ते तथा अपने अपने जितने प्रदेश हैं उनका उल्लंघन नहीं करते इस दृष्टि से ये अवस्थित नाम से प्रतिपादित होते हैं । अथवा नित्य शब्द अवस्थित का विशेषण है । उससे यह अर्थ ध्वनित होता है कि जैसे देवदत्त में गमन आगमन आदि अनेक पर्यायों के सद्भाव होने पर भी यह देवदत्त सतत जलता है, क्रोध करता है ऐसा कह देते हैं । वैसे ही अंतरंग बहिरंग दो कारणों से होने वाले उत्पाद और विनाश युक्त ये धर्मादि द्रव्य हैं फिर भी अपने अमूर्त्तत्व आदि स्वभाव को कभी भी नहीं छोड़ते अतः नित्य ही अवस्थित हैं। ऐसा कहते हैं ।