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पंचमोऽध्यायः
तद्भावाऽव्ययं नित्यम् ॥ ३१ ॥
तदेवेदं वस्त्विति प्रत्यभिज्ञानं यस्मिन् हेतौ भवति स तद्भाव इति कथ्यते । तस्य वस्तुनो भवनं भावस्तस्य भावस्तद्भावः । येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावस्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते । यद्यत्यन्तविनाशाभिनबप्रादुर्भावमात्रमेव स्यात्तदा स्मरणानुपपत्तेस्तदधीनो लोकव्यवहारो विरुध्यते । ततस्तद्भावेन द्रव्येणाव्ययं ध्रुवं तद्भावाव्ययं नित्यमिति निश्चीयते । सामर्थ्यादुत्पादव्ययभावात्तदनित्यमित्यप्यवगम्यते । ननु तदेव नित्यं तदेव चानित्यमिति विरुद्धमेतत् । यदि नित्यं तदा व्ययो दयाभावादनित्यताव्याघातः । अथानित्यमेव तहि स्थित्यभावान्नित्यताव्याघात इति । नैतद्विरुद्धम् ।
पितानपतसिद्ध ेः ॥ ३२ ॥
कुतः
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सूत्रार्थ - उसके भावका व्यय नहीं होना नित्य कहलाता है । वह ही यह वस्तु है इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान जिसके निमित्त से होता है वह उसका तद्भाव है । उस वस्तु का जो होना है वह उसका भाव है । जिस स्वरूप से वस्तु पहले देखी थी उसी स्वरूप से पुन: फिर भी होना वह उस वस्तु का भाव है जिससे कि 'बही यह है' ऐसा एकत्व प्रत्यभिज्ञान होता है । यदि क्षणिकवादी बौद्ध के अनुसार वस्तु का सर्वथा नाश व्यय और सर्वथा नूतन की उत्पत्ति मानी जाती है, तो ऐसी वस्तु का कालांतर में स्मरण नहीं हो सकता, और स्मरण के अभाव में उससे होने वाला लोक व्यवहार भी नहीं हो सकता । अतः द्रव्य का उस भाव से जो अव्यय-ध्रुव होना है वह नित्य है ऐसा निश्चय होता है । इस नित्यत्व के लक्षण की सामर्थ्य से उत्पाद व्यय का भाव अनित्यत्व है ऐसा जाना जाता है ।
शंका- वही वस्तु नित्य है और वही अनित्य है ऐसा मानना विरुद्ध है । यदि वस्तु को नित्य मानते हैं तो उसमें उत्पाद व्यय संभव नहीं है अतः अनित्य नहीं रहता और यदि अनित्य मानते हैं तो स्थिति का अभाव होने से नित्यत्व समाप्त होता है ?
समाधान - यह विरुद्ध है अर्थात् नित्य और अनित्यत्व को एकत्र मानना विरुद्ध नहीं है । कैसे सो ही सूत्र द्वारा बताते हैं
सूत्रार्थ — अर्पित और अनर्पित द्वारा वस्तु धर्मों की सिद्धि होती है ।