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षष्ठोऽध्यायः
[ ३४७ वर्गणालम्बनापेक्षः प्रदेशपरिस्पन्दो योगः सयोगकेवलिनोऽस्ति । तदालम्बनाभावादयोगकेवलिसिद्धानां योगाभावः । इदानीमुक्तलक्षणस्य योगस्यैवास्रवव्यपदेशनिर्देशार्थमाह
स प्रास्त्रवः ॥२॥ स इति तच्छब्देन योगो निर्दिश्यते । प्रात्मनः कर्मास्रवत्यनेनेत्यास्रवः । स एव-त्रिविधवर्गणालम्बन एव योगः कर्मागमनकारणत्वादास्रवव्यपदेशमर्हति । न सर्वो योगः, पृथक्सूत्रक रणस्य सामर्थ्यात् । अन्यथा हि कायवाङ मनस्कर्मयोग आस्रव इति तच्छब्दाऽकरणाल्लाघवार्थमेकसूत्रेऽपि कृते स्वेष्टं सिध्यति । तेन केवलिसमुद्घातकाले सयोगकेवलिनो दण्डकवाटप्रतरलोकपूरणव्यापारलक्षणो योगः
है। तीन प्रकार की वर्गणा-मनोवर्गणा, वचनवर्गणा तथा कायवर्गणा का आलंबन लेकर होने से वह तीन प्रकार का है । इन तीनों ही वर्गणाओं का अवलंबन अयोग केवली के तथा सिद्धों के नहीं होता अतः इनके योग नहीं पाया जाता ।
अब उक्त लक्षण वाला जो योग है वही आस्रव नाम पाता है ऐसा सूत्र द्वारा कहते हैं
सूत्रार्थ-वह योग आस्रव कहलाता है ।
'स' शब्द से योगका ग्रहण किया है । जिससे आत्मा के कर्म आता है वह आस्रव है । तीन प्रकार की वर्गणाओं का आलंबन लेकर जो योग होता है तथा जो कर्म के आगमन का कारण है उसकी ही आस्रव संज्ञा है । सभी योगों को आस्रव नहीं कहते । 'कायवाङ मनस्कर्म योगः और स आस्रवः' इन दो सूत्रों को पृथक-पृथक् करने से ज्ञात होता है कि सभी योग आस्रवरूप नहीं हैं। यदि ऐसा अर्थ इष्ट नहीं होता तो 'कायवाङ मनस्कर्म आस्रवः' ऐसा एक सूत्र बनता, और स शब्द नहीं रहने से सूत्र लाघव होता है एवं इष्ट अर्थ भी सिद्ध हो जाता। सभी योग आस्रव रूप नहीं हैं इसका अर्थ बताते हैं कि सयोग केवली जब केवली समुद्घात करते हैं तब दण्ड, कपाट प्रतर और लोकपूरण रूप आत्मप्रदेशों का फैलना होता है उस क्रिया स्वरूप जो योग है वह कर्म बंधका कारण नहीं है।
प्रश्न-तो फिर सयोगी जिनके उस केवली समुद्धात अवस्था में कर्म बंधका कारण ( अर्थात् ईर्यापथ आस्रवरूप एक समय वाला साता कर्म के बंधका कारण ) कौन होता है ?