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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
काययोगाभावे तदनुपपत्ते मुक्तात्मवत् । मुक्तात्मनस्तर्हि निष्क्रियत्वं स्यादिति चेत्तन्न - कर्मनिमित्त क्रियानिवृत्तावपि मुक्तस्योर्ध्वगतेरभ्युपगमात् । तस्मादयमदोष एव - शरीरवियोगादात्मनो निष्क्रियत्व प्रसङ्ग इति । वक्ष्यते चोत्तरत्र मुक्तानां क्रिया पूर्वप्रयोगादिभिः । पुद्गलानामपि क्रिया विस्रसानिमित्ता प्रयोगनिमित्ता चेति द्वितयी वक्ष्यते । इत्यलमतिविस्तरेण । प्रजीवकाया इत्यत्र कायग्रहणेन धर्माधर्म योर्जीवस्य चानेकप्रदेशत्वसूचनात्तत्प्रमाणावधारणार्थमाह
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सङ्खयाः प्रदेशा धर्माधर्मेकजीवानाम् ॥ ८ ॥
उपसंहरण पूर्वक ही लोक पूरणादिक होता है । कार्मण काय योग के अभाव में वह क्रिया नहीं बनती, जैसे मुक्तात्मा में योग नहीं होने से लोकपूरणादिक नहीं होते । शंका- तो फिर मुक्तात्मा में निष्क्रियपना सिद्ध होगा ?
समाधान- यह कथन भी ठीक नहीं है । मुक्तात्मा में कर्म के निमित्त से होने वाली क्रिया का अभाव होने पर भी ऊर्ध्वगमन क्रिया का सद्भाव है, अत: यह दोष नहीं आता कि शरीर के अभाव से आत्मा निष्क्रिय होता है, अतः मुक्तात्मा निष्क्रिय है इत्यादि ।
आगे अंतिम अध्याय में कहेंगे कि मुक्तात्मा में पूर्व प्रयोग आदि के निमित्त से क्रिया होती है ।
पुद्गलों में भी दो प्रकार की क्रिया पायी जाती है स्वभाव निमित्तक और प्रयोग निमित्तक, इसका कथन आगे [ २४ वें सूत्र में ] करेंगे । अब इस विषय में अधिक नहीं ।
"अजीव काया" इत्यादि सूत्र में काय शब्द का ग्रहण हुआ है उससे धर्म अधर्म और जीव के अनेक प्रदेशपने की सूचना मिलती है, वे अनेक प्रदेश कितने हैं इसका अवधारण करने के लिये अग्रिम सूत्र अवतरित होता है
सूत्रार्थ - धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य और एक जीव द्रव्य में असंख्यात प्रदेश पाये जाते हैं ।